दोस्तों आज सबने अपना बालपन अलग अलग तरह से जिया है लेकिन 90 के दशक में लगभग सभी ने एक जैसा जिया होता था। समय बड़ा busy होता था घर के काम में हाथ बंटाना, मार खाना ,खेलने जाना ,कपड़े मैले करना,और स्कूल मार खाने के डर से ना जाना इत्यादि । दोस्तों मेने इस समय को ध्यान में रखते हुए एक कविता लिखी है जिसका शीर्षक है : "बालपन और इतवार"...... यदि आपको पसंद आए तो अपनी प्रशंसा जरूर भेजिएगा, धन्यवाद !
मिलते हम सब जब शनि शाम को
तजवीज यूं कल की करते थे,
क्या कैसे और कहां खेलना
फिर नियम भी तय कर जाते थे।
होती जब सुबह रविवार की
तन मन सजग हो जाते थे,
उस दिन खुद से आंखें खुलती थी
और अवाक गमन कर जाते थे।
दिनभर खेला करते थे
यूं बदन को मैला करते थे,
ना होश अभी घर जाने की
ना ही तमस से डरते थे।
पर जब भी अंधेरा होता था
हमें याद तब आती थी,
कि पिछले रविवार को हमने
डांट बहुत ही खाई थी।
फिर कह अलविदा यारों को
हम अपने घरों को चलते थे,
उसी राह में मन में बापू
रौद्र रुप में दिखते थे।
घर का आंगन पड़ते ही हम
दुबक दुबक कर चलते थे,
बढ़े रसोई सबसे पहले
अम्मा जी से मिलते थे।
मिली मिठाशी डांट हमें तब
करुणा सा रूप बनाते थे,
अम्मा के माफी देते ही हम
थोड़ी राहत पाते थे।
फिर दिखे आंख जब बापू की
हम थर थर कांपा करते थे,
हर बार कसम हम खाते थे
वो जो क्षणभंगुर होते थे।
इस बार बचाले है प्रभु!
यह विनती हर बार की होती थी,
पर हर बार अंधेरा होता था
हर बार पिटाई होती थी।
By-प्रदीप