मेरे देश को भारत कहें या इंडिया...
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है।
हम ग्रामीण परिवेश से शहरों में पलायन कर रहे हैं , जितना तीव्र हमारा विकास नहीं हुआ है उससे भी ज्यादा हमारी ग्रामीण परिवेश को त्यागने की प्रवृत्ति बढ़ रहीं हैं। आजादी के कई दशकों के बाद भी ग्रामीण और शहरी परिवेश में इतनी असमानताएं भरीं हुईं है कि अक्सर हमारी ही यह बोलने की शैली हो जाती है कि हम अपने देश को भारत कहें या इंडिया हम यह सुनिश्चित ही नहीं कर पाते हैं। यह दोनों ही शब्द चाहें एक से हो परन्तु यह ग्रामीण और शहरी इलाकों की दो अलग-अलग वास्तविकता को दर्शातें हैं। गांव भारतीय संस्कृती सभ्यता और विरासत का दर्पण है, भारत की सदियों पुरानी परम्पराएं आज भी यहां पर जीवित हैं। ग्रामीण परिवेश आज भी सरल है जो व्यस्तम जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यद्यपि शहरों में रहने वाले लोगों के पास अत्याधुनिक सुविधाओं तक पहुंच है। फिर भी वहां का व्यस्तम जीवन चुनौतियों और भारी तनाव से भरा हुआ ही है।
चेन की सांस तो ले लो..एक बार फिर से पीछे पलट कर के तों देखा, कुछ नया नहीं तो कुछ तो पुराना मिलेगा, जिस परिवेश में असिम शांति की अनुभूति महसूस होगी। शहरी विकास, शहरी परिवेश में होने पर भी हम सब एक सीमा के बाद , इस शांति को हर जगह मौजूद होने पर भी विकसित शहरों में नहीं खोज पाते हैं।
अमृता प्रीतम की कविता शहरीकरण की आपा-धापी को स्वत: प्रकट करतीं हैं।
शहर
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरे देश को भारत कहें या इंडिया।
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
- अमृता प्रीतम
चाहें हम अपने विकास क्रम को सुरक्षित, सुनिश्चित करने के लिए शहरी जीवन की और दौड़ लगाले फिर भी सुख शांति और चेन की सांस के लिए हमें हमारे ग्रामीण परिवेश की और ही रूख करना होगा। शहरों की भागादौड़ ज़िन्दगी और धरातल पर स्थित हम-सब, और दौड़ती सड़कें और दौड लगाता शहर, वहां की जीवनशैली हमें अत्याधुनिक सुविधाओं से भलें ही सुसज्जित कर दें , परन्तु एक सुखद शुकुन हमें उस शांत परिवेश में मिलेगा, जिसे हम भूल चुके हैं, या भुलाना चाह रहें हैं, या हम सब नहीं चाह रहे हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी ग्रामीण परिवेश में जीएं। या फिर हम नहीं चाहते कि हम विकास क्रम के दोराहे पर शहरीकरण में ग्रामीण परिवेश का एक कोना पकड़े रहें।