सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब....
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता |
हमारा बचपन एक मिट्टी के बर्तन की तरह होता है , कुम्हार के चाक पर बनाएं गये बर्तनों की तरह ही इस बचपन के समय को भी आकार देकर परिपक्वता में ढाला जाता है। बचपन की अच्छी यादें हमें भविष्य में खुश रखने में मददगार होती है वहीं बुरी यादों में गुज़रा बचपन जीवन की कठिनाईयों और मुसीबतों से लडने के लिए भी प्रेरणा स्रोत होता है। बचपन हमारे जीवन का वह भाग है जो हमारे भविष्य को आकार देता है।
गीतकार, गज़लकार जगजीत सिंह की ग़ज़ल की यह पंक्तियां हमें हमारी बचपन की यादों को फिर से ताज़ा कर देती है....
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी
मुहल्ले की सबसे निशानी पुरानी
वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों में परियों का डेरा
वो चेहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा
भुलाए नहीं भूल सकता है कोई
वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी
कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुड़िया की शादी में लड़ना झगड़ना
वो झूलों से गिरना वो गिर के सम्भलना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफ़े
वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी
कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना बनाके मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी...
हमारा बचपन भी वहीं सपनों का घर था, जहां पर दादा, दादी,नानी की कहानियां को सुनना, सुनाना, दोस्तों के साथ खेलना, पेड़ों पर झुला डालकर झुलते हुए ठंडी-ठंडी हवा का आनंद लेना, माली के बागों से आम बेरों को तोडना , पिताजी के कंधों पर मेला देखने जाना, मिट्टी के छोटे छोटे खिलौनों को बनाना, और खेलना, यह सब कुछ जो एक उल्लासपूर्ण स्थित को बयां करता था। आज की भागदौड़ भरी जीवनशैली में जितना बदलाव हुआ है, उससे ज़्यादा आने वाली नई पीढ़ी और नवांकुर इस बचपन से लगभग अनभिज्ञ ही हैं, हम पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति को पूर्ण स्वीकारते हुए भी आने वाली नवागंतुक पीढ़ियों में बचपन का सुकून और चैन स्थानान्तरीत नहीं कर पाएं हैं, और आने वाला भविष्य जो अभी पूर्ण अंकुरित भी नहीं हुआ है वह इस आनंद पूर्ण हमारे बचपन को स्वीकार करने में बिल्कुल असमर्थ हैं।