यह शब्द उन युवा लडकियों की अन्तरआत्मा से मुक रूप में निकलते है, जो देवी देवता को प्रसन्न करने के लिए सेवक के रूप में मंदिर मे समर्पित कर दी जाती हैं। 21वीं सदी के मानव समाज के लिये शर्मसार करने वाली यह कुप्रथा एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है जिसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। देवदासी प्रथा की शुरुआत छठी और सातवीं शताब्दी के आसपास हुई थी। इस प्रथा का प्रचलन मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में बढ़ा। दक्षिण भारत में खासतौर पर चोल, चेला और पांड्याओं के शासन काल में ये प्रथा खूब फली फूली। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। अंग्रेजों ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की तो लोगों ने इसका विरोध किया। परंपरागत रूप से देवदासियां वे ब्रह्मचारी होती हैं, जिन्हें मनोरंजन की एक वस्तु समझा जाने लगा।
"किसी व्यक्ति विचार, संगठन या धर्म, का इतना अंधसमर्थन मत करो, कि उसकी गलतियों या अपराधों के विरोध का साहस ही क्षीण हो जाए। -मिथिलेश अनभिज्ञ"
देवदासी या देवारदियार का मतलब होता है, सर्वेंट ऑफ गॉड यानी देव की दासी। देवदासी बनने का मतलब होता था, भगवान या देव की शरण में चला जाना। उन्हें भगवान की पत्नी समझा जाता था। इसके बाद वे किसी जीवित इंसान से शादी नहीं कर सकती थीं। पहले देवदासियां मंदिर में पूजा,पाठ और उसकी देखरेख के लिए होती थीं। वे नाचने गाने जैसी 64 कलाएं सीखती थीं, लेकिन बदलते वक्त के साथ,साथ उसे उपभोग की वस्तु बना दिया गया। सामान्य सामाजिक अवधारणा में देवदासी ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। पहले समाज में इनका उच्च स्थान प्राप्त होता था,बाद में हालात बदतर हो गये। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ये महिलायें निराश्रित और बदहाल होती हैं। इन्हें भगवान की सेवा की आड़ में पुजारियों और मठाधीशों की सेवा करनी पड़ती है। यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र का वह गलत कार्य है,जिसे धार्मिक स्वीकृति हासिल है।
"अब न बनाओ कोई नया किस्सा बेटियों को दो अब समाज में हिस्सा,पुत्री है सबसे सुन्दर उपहार, इसके साथ न करो दुर्व्यवहार।"
कम उम्र में लड़कियों को देवदासी बनाने के पीछे अंधविश्वास के साथ,साथ गरीबी भी एक बड़ी वजह है। कम उम्र की लड़कियों को उनके माता, पिता ही देवदासी बनने को मजबूर करते हैं, क्योंकि ये लड़कियां ही उनकी आय का एकमात्र जरिया होती हैं। सामाजिक.पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर होती हैं। समाज के कमज़ोर वर्गों के लिये आजीविका स्रोतों को बढ़ाने में राज्य की विफलता भी इस प्रथा की निरंतरता को बढ़ावा दे रही है
"हर चीज से बढ़कर,अपने जीवन की नायिका बनिए शिकार नहीं। - नोरा एफ्रान"
आजादी के पहले और बाद भी सरकार ने देवदासी प्रथा पर पाबंदी लगाने के लिए कई कानून बनाए गए है। पिछले 20 सालों से पूरे देश में इस प्रथा का प्रचलन बंद हो चुका है। फिर भी कहीं न कहीं, देवदासी, कृष्णदासी कुप्रथा के रूप में भारत के अनेक स्थानों पर दृष्टिगोचर होती हैं, जिसका हल अभी भी नहीं निकल पाया हैं।
i. कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं।
ii.जस्टिस रघुनाथ राव की अध्यक्षता में बने एक और कमीशन के आंकड़े के मुताबिक सिर्फ तेलंगाना और आँध्र प्रदेश में लगभग 80,000 देवदासियां हैं।
iii.अध्ययन के अनुसार, मानसिक या शारीरिक रूप से कमज़ोर लड़कियाँ इस कुप्रथा के लिये सबसे आसान शिकार हैं। नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिट (NLSIU) के अध्ययन की हिस्सा रहीं, पाँच देवदासियों में से एक ऐसी ही किसी कमज़ोरी से पीड़ित पाई गई।
iv. कर्नाटक देवदासी (समर्पण का प्रतिषेध) अधिनियम, 1982 (Karnataka Devadasis (Prohibition of Dedication Act of 1982) के 36 वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार द्वारा इस कानून के संचालन हेतु नियमों को जारी करना बाकी है जो कहीं न कहीं इस कुप्रथा को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध हो रहा है।
v. इस प्रथा को निभाने वाले लोगों को या तो कानून के बारे में पता नहीं होता है या फिर वे जानते हुए भी इसकी परवाह नहीं करते। क्योंकि देवदासी प्रथा में शामिल लोग और इसकी वजह से सजा पाने वाले लोगों के आंकड़े में बहुत फर्क है। ऐसे लोगों पर कानून का असर इसलिए भी नहीं होता क्योंकि कानून इस प्रथा को सिर्फ अपराध मानता है। जबकि ऐसा करने वाले लोग काफी पिछड़े समाज से होते हैं और उन्हें शिक्षाएं, स्वास्थ्य, और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतें भी नहीं मिल पातीं। अगर उन्हें ये सब जरूरतें मुहैया कराई जाएं और उन्हें समर्थ बनाने का प्रयास किया जाये तो स्थिति में सुधार की कल्पना की जा सकती है।
"जो श्रद्धा धर्म के लिए है वही विश्वास मानवीय सम्बन्धों के लिए है। ये शुरूआती बिंदु है,ऐसी नीव जिस पर और अधिक निर्माण किया जा सकता है। -बारबरा स्मिथ"
धार्मिक आस्था के नाम पर उपभोग की वस्तु निर्धारित होने वाली कृष्णदासी, देवदासी प्रथा, सामाजिक सुधार कानूनों पर कडा आक्षेप है, यह उन लडकियों की असहनीय निराश्रित मुक आवाज है जो सहज ही यह कहती है कि बाबा ऐसो वर ढूंढ़ो...बाबा तु मोहे कदे ब्याह करवाएगो, अगले जन्म तु मोहे देवशरण में न दिझे
देवदासी जैसी झुठी और गलत आस्था बंधन के कारण यह शब्द आज भी उनके मुख से बाहर ही नहीं आ पाते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे जब ट्रैन किसी सुरंग से निकलती है और अँधेरा हो जाता है, तब आप अपना टिकट फेंक कर ट्रैन से कूद नहीं जाते। आप बैठे रहते हैं और इंजीनियर पर भरोसा रखते हैं, न की अंधेरी सुरंग पर, ठीक वैसे ही हमे झुठी धार्मिक आस्था पर विश्वास न करके हमारे स्वयं के दृढ विचारो पर विश्वास करना चाहिए, ताकि हम इन झुठी धार्मिक आस्था का विरोध कर सके। विश्वास मर जाता है लेकिन अविश्वास फलता,फूलता रहता है। इसलिए स्वयं पर विश्वास करना सीखें। समाज की श्रेष्ठ वास्तुकार है बेटी, सृष्टि का सृजन है बेटी,घर का आँगन है बेटी। इसे अंध धार्मिक आस्था के नाम पर बली न चढाएं।