"गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,गढ़ि गढ़ि काढै़ खोट।
अंतर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट।। "
गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं। कबीर दास जी द्वारा रचित यह दोहा उस समय भी उतना ही प्रासंगिक था आज भी है और भविष्य में भी उतना ही प्रासंगिक होगा। गुरु पूर्णिमा का त्योहार गुरु के प्रति श्रद्धा का, सम्मान का और समर्पण का त्योहार है। इतिहास साक्षी है कि हर युग में गुरु का सम्मान होता आया है। सदियों से यह परंपरा अभी भी जीवित है। गुरु से हमारा अभिप्राय सिर्फ आध्यात्मिक गुरु से नहीं है गुरु केवल हमें परलोक तक पहुंचाने का मार्ग ही नहीं दिखाता बल्कि इस भौतिक संसार में अपने आप को सफलता से आगे बढ़ने के योग्य भी बनाता हैं। गुरु वह है जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाता है, जो हमारा मार्गदर्शन करता है। "प्रेरणा देने वाले, सूचना देने वाले, सच्चाई का मार्ग दिखाने वाले, हमारा मार्गदर्शन करने वाले, उचित और अनुचित में भेद बताने वाले सभी व्यक्ति गुरु के समान ही है।" एक सच्चा गुरु अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करता है और उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गुरु का महत्व है, चाहे वह आध्यात्मिक हो, शैक्षिक हो या कोई अन्य क्षेत्र। जीवन में हम ऐसे बहुत से व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, जो जाने-अनजाने हमें एक बहुत बड़ी सीख दे जाते हैं और जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। उनकी सीख गुरु के समान ही हमारा मार्गदर्शन करती है।
गुरु का व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्व होता है। एक बालक के लिए उसका सर्वप्रथम गुरु उसके माता-पिता होते हैं। बच्चे को उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं। पालन-पोषण करते हैं। उनको संस्कार देते हैं। मेरे जीवन में भी मेरे प्रथम गुरु मेरे माता-पिता ही हैं। मैं आभार व्यक्त करती हूं उनका। मेरे पिताजी से मुझे यह सीख मिली कि जीवन में जो कुछ भी आपको मिला है अथवा जो कुछ भी आपके पास है उसी को स्वीकार करके आगे बढ़ो। परिश्रम ही तुम्हें आगे ले जा सकता है। महत्वकांक्षी होना गलत नहीं है, लेकिन अपने सामर्थ्य को, अपनी वास्तविकता को पहचान कर, उसे अपना करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। जहां तक प्रश्न है मेरी मां का, वह बहुत अधिक पढ़ी लिखी तो नहीं है परंतु एक बहुत अच्छी सीख जो मुझे उनसे मिली है और स्वयं जिन्होंने इसे जीवंत किया है,वह है - "मन को मारो नहीं, मन को सुधारो" बचपन से ही बहुत सी ऐसी चीजें हमारे आसपास होती थी जिनकी तरफ मन आकर्षित होता था, यह अलग बात है कि वह हमें मिल नहीं सकती थी। अक्सर लोग कहते हैं मन को मारना सीखो। परंतु मेरी मां कहती मन को मारो नहीं, मन को सुधारो। क्योंकि मन को मारने से वह चीज मन से निकलती नहीं बल्कि परत दर परत मन में ही दबती रहती है और जीवन भर हम उन इच्छाओं से कुंठित रहते हैं। वो कुंठाए हमारे साथ चलती है। इसलिए मन को मारो नहीं उसे सुधारों। यह स्वीकार कर लो कि नहीं यह वस्तु हमारे योग्य नहीं अथवा हम इसके योग्य नहीं इसलिए यह हमें नहीं चाहिए, हमें नहीं मिल सकती। मन को सुधार लोगे तो संतुष्ट रहोगेे और वह इच्छाएं कभी भी आपको दर्द नहीं देंगी। भाग्य में होगा तो मिल ही जाएगी।
"मन को मारो नहीं, मन को सुधारो"जीवन की दूसरी बड़ी सीख जिनसे मुझे मिली उनका नाम है - श्री महावीर तंवर जी। आप एक निजी विद्यालय के संस्थापक और निदेशक हैं। मुझे याद है मैं लगभग 24- 25 वर्ष की रही होंगी जब उनके विद्यालय में सर्वप्रथम शिक्षिका हेतु मैंने आवेदन किया था। तब मुझे पहली बार दसवीं कक्षा में भेजा गया बड़े बड़े लड़के लड़कियों के बीच शिक्षण कार्य तो दूर की बात है छात्रों को नियंत्रण में भी नहीं रख सकी थी। मुझे लग रहा था कि मैं यह कार्य नहीं कर सकती। 5 मिनट भी मैं कक्षा में खड़ी न रह सकी और वापस उनके ऑफिस में आ गई और कहा-" सर मैं तो नहीं पढ़ा सकती। मैं नौकरी छोड़ रही हूं। मैं जा रही हूं सर।" उन्होंने बहुत ही शांत और सहज भाव से बिना मेरी और देखे कहा-"ठीक है, मैडम कोई बात नहीं। जैसी आपकी इच्छा।" कुछ रुक कर उन्होंने आगे कहा -"अब आप क्या करेंगी।" मैंने कहा -" सर मैं ऑफिस में नौकरी करूंगी, पढ़ाना मेरे बस की बात नहीं।" तब उन्होंने कहा- "और वहां पर एडजस्ट नहीं हुए तो तीसरी ढूंढना, हो सकता है वहां भी कोई समस्या आ जाए, तो फिर कोई नया कार्यक्षेत्र ढूंढ लेना। हर क्षेत्र की अपनी अपनी समस्याएं होती हैं पर होती जरूर है। सामना तो करना ही पड़ेगा। कोई भी काम आसान नहीं होता, उसे आसान बनाना पड़ता है। आप कब तक भागोगे, कहां तक भागोगे, बिना सामना किया आगे नहीं बढ़ सकते। कोई बात नहीं छोड़ दो, हमें तो दूसरी अध्यापिका मिल जाएगी पर लोग कहीं आपको कायर न कहे।" उनकी इस बात ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और तब से आज तक लगभग 15 वर्षों से मैं अध्यापन कार्य से जुड़ी हूं और मुझे अपने कार्य पर गर्व है। इस घटना ने मुझे सिखाया कि समस्याओं से भागने सेे नहीं बल्कि उनका सामना करने से जीवन में सफलता मिलती है। जब तक उनके विद्यालय में कार्य किया उनसे ऐसी बहुत सी सीख मिलती रही, जो किताबों और डिग्रियों से नहीं मिल सकी। जाने अनजाने उनसे जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसके लिए मैं उनकी आभारी हूं।
मेरी तीसरी गुरु जिनकी मैं बहुत आभारी हूं, वह हैं- प्रोफेसर सुषमा तलेसरा जी, जो कि मेरी पीएचडी की निर्देशिका ( गाइड )भी रही हैं। उन्होंने न सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में बल्कि जीवन के अनेक मोड़ पर मेरा मनोबल बढ़ाया,मेरा साहस बढ़ाया और मेरा मार्गदर्शन किया। एक सच्चा गुरु वह होता है जिसे अपने शिष्य पर, उसके सामर्थ्य पर पूरा भरोसा होता है। गुरु ही अपने शिष्य की क्षमताओं और प्रतिभा से उसको परिचित कराता है। वह शिष्य को समाधान नहीं बताता, बल्कि उसे इस योग्य बनाता है कि वह स्वयं अपने समाधान ढूंढ सके। अपनी पीएचडी के दौरान लगभग 6 महीने के अंदर ही परिस्थितियां कुछ ऐसी हुई कि मैंने निर्णय कर लिया कि मैं पीएचडी नहीं कर सकती। मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं है। यह मेरी समझ से बाहर है। मैं उनके पास गई और कहा- "मैडम मैं पीएचडी छोड़ रही हूं, मुझसे नहीं होगा। आप चाहे तो कैंसिल करा दे मेरी पीएचडी। यह मेरा आखिरी निर्णय है।" उन्होंने बड़ी सहजता से कहा- "ठीक है तुम जाओ। थोड़ा आराम करो।" लगभग एक- ढेड़ महीने के बाद मुझे लगा कि मैं जाकर पता करूं क्या प्रक्रिया चल रही है। मैं उनके पास गई, अंदर से थोड़ी डरी हुई, सहमी हुई थी कि पता नहीं वह क्या जवाब देंगी। पर जब मैं उनके सामने पहुंची, उन्होंने मुझे देख कर कहा-" काम शुरू करें। बहुत समय व्यर्थ गवा दिया है ।" मैं कुछ कहती उससे पहले ही आगे उन्होंने कहा - " मुझे पता था तुम वापस आओगी, तुम्हारे अंदर सामर्थ्य है और मुझे विश्वास है कि तुम यह कर सकती हो और जरूर करोगी। शायद उनका यह विश्वास था जिसने मुझे भी अपने ऊपर विश्वास करने के लिए प्रेरित किया। मेरा मनोबल बढ़ाया और मैंने उनके विश्वास को अपना आत्मविश्वास बना लिया। मैं बहुत आभारी हूं उनकी कि उन्होंने मेरा इतना साथ दिया, मेरे सामर्थ्य को पहचाना और आगे बढ़ने के लिए हमेशा मुझे प्रेरित किया और अभी भी करती हैं।
"गुरु वो है जो हमसे हमारी ही पहचान कराता है।
हमारे सामर्थ्य एवं प्रतिभा को उजागर करता है।
अपने विश्वास से हममें आत्मविश्वास जगाता है।
खुद न बढ़कर, हमें आगे बढ़ने की राह दिखाता है।"
मेरे जीवन में आए हर छोटे-बड़े व्यक्ति जिनसे मैंने कुछ ना कुछ सीखा है, जिनसे मुझे प्रेरणा मिली, जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया, मुझ पर भरोसा किया, वह सभी मेरे गुरु समान है , यहां तक कि मेरा ग्यारह वर्षीय बच्चा भी, उसकी मासूम सी बातों से कई बार जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझने में मुझे सहायता मिलती है। गुरु पूर्णिमा के इस पावन पर्व पर अपने सभी गुरुजनों को मेरा शत-शत नमन।
"ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं और गुरु से बड़ा कोई दानी नही।"-अज्ञात