हे अगर दूर मंजिल तो क्या
रास्ता भी है मुश्किल तो क्या...
रहें ना रहें हम, महका करेंगे बन के कली,
बन के सबा, बाग़े वफ़ा में ...
लता जी का शरीर पंच तत्वों में विलीन हो गया....बसंत पंचमी पर्व पर सरस्वती की पूजा , स्वर सरस्वती की अंतिम विदाई हो गई हैं। अद्भूत समागम लगता है...जैसे माँ सरस्वती इस बार अपनी सबसे प्रिय पुत्री या शिष्या को ले जाने मानो स्वयं आयी थीं। शास्त्रीय संगीत की कई हस्तियां जो लता मंगेशकर को साक्षात् सरस्वती मानती थी। लता मंगेशकर का अनुसरण मानों साक्षात् सरस्वती का अनुगमन करना था। बसंत पंचमी के दूसरे दिन ही सरस्वती विसर्जन के दिन वह पंचतत्व में समाहित हो गई।जीवन में हम जो चाहे उसके प्रति सकारात्मक सोच रखें तो जीवन वह सब देने के लिए बाध्य हैं।
93 वर्ष का इतना सुन्दर ,शांत और सौम्य धार्मिक जीवन विरलों को ही प्राप्त होता है। लगभग पाँच पीढ़ियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध हो कर सुना है.... और हृदय से सम्मान दिया है। और शायद आने वाली हम और आपकी पीढियां भी स्वर साम्राज्ञी के प्रति नतमस्तक ही रहेंगी,यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा।
अपार सफलता के बावजूद वह अपनी जड़ों से जुड़ी रहीं।
लता की जादुई मखमली, रूमानी आवाज़ के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरी दुनिया प्रभावित हैं, जो प्रत्यक्ष स्वर साम्राज्ञी की मृत्यु के बाद दृष्टि गोचर होता है। 'भारतरत्न' से सम्मानित लता मंगेशकर को भारतीय पार्श्वगायन की एकछत्र सर्वर साम्राज्ञी स्वीकार किया जाना आपके सम्मान का सोपान और ऊंचा निर्धारित करता है।
वक्त आने पर बता देंगे तुझे ऐ आसमां...
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंजिल मे है।
पिता की मृत्यु पर उन्होंने परिवार की बड़ी पुत्री होने का फ़र्ज़ निभाया था। उनके पिता ने जब अपने अंतिम समय में घर की बागडोर उनके हाथों में थमाई थी, तब वह तेरह वर्ष की ही थी। नन्ही जान के कंधे पर छोटे छोटे चार बहन-भाइयों के पालन की जिम्मेदारी थी।
ज़िन्दगी तेरे गम ने हमें
रिश्ते नए समझाए...
लता जी ने अपना समस्त जीवन उन चारों को ही समर्पित कर दिया। और आज जब वह इस संसार से पलायन कर गयी हैं तो उनका परिवार भारत के सबसे सम्मानित प्रतिष्ठित परिवारों में से एक है। किसी भी व्यक्ति का जीवन इससे अधिक और क्या सफल होगा?
तुझसे नाराज़ नहीं जिंदगी....
हैरान हूं मैं, हों हैरान हूं मैं...
भारत पिछले अस्सी वर्षों से लता जी के गीतों के साथ जी रहा है। हर्ष में, विषाद में,ईश्वर भक्ति में, राष्ट्र भक्ति में, प्रेम में, परिहास में... हर भाव में लता जी का स्वर हमारा स्वर बना है। 93 वर्ष का इतना सुन्दर और धार्मिक जीवन विरलों को ही प्राप्त होता है। लगभग पाँच पीढ़ियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध हो कर सुना है, और हृदय से सम्मान दिया है।
गाना उनके लिए ईश्वर की पूजा करने जैसा ही था, इसलिए लता जी गाना गाते समय चप्पल नहीं पहनती थीं। कैसा दार्शनिक भाव है कोई उनके घर जाता तो उसे अपने माता-पिता की तस्वीर और घर में बना अपने आराध्य का मन्दिर दिखातीं थीं।
अपने लगभग सत्तर वर्ष के गायन कैरियर में लगभग 36 भाषाओं में हर रस/भाव के 50 हजार से भी अधिक गीत गाने वाली लता जी ने अपना पहले और अंतिम हिन्दी फिल्मी गीत के रूप में भगवान भजन ही गाया है।
हे अगर दूर मंजिल तो क्या
रास्ता भी है मुश्किल तो क्या...
माँ शारदे का दूसरा रूप कहीं जाने वाली लता जी, का जाना एक क्षती है, जिसे किसी भी माध्यम से नहीं भरा जा सकता है। सरस्वती साधकों व संगीतज्ञों के लिए उनका संगीत अनमोल उपहारों की तरह हैं। कुछ जीवन के अविस्मरणीय संस्मरण जो लता जी के संघर्ष के दौरान के है। जो उनके अतुलनीय प्रयास व जीवटता को स्वत:नमन करते हैं। उनमें से ही एक संस्मरण था जब मुंबई में शुरुआती संघर्ष के दौरान लता जी को लोकल ट्रेन से सफ़र करना पड़ता था और ट्रेन में ही उनकी मुलाक़ात दिलीप कुमार से भी हुई थी। एक इंटरव्यू में लता जी ने बताया था कि, 'संगीतकार अनिल विश्वास भी हमारे साथ लोकल ट्रेन में जाया करते थे। उन्होंने मुझे दिलीप कुमार से मिलवाया और कहा कि ये लड़की बहुत अच्छा गाती है। दिलीप साहब ने पूछा, 'कौन है वो?' तो अनिल विश्वास ने बताया कि मराठी लड़की हैं। दिलीप कुमार सब कुछ सुनते रहे और अचानक बोले- 'वो मराठी है, तो वह अच्छी उर्दू कैसे बोलेगी?' दिलीप कुमार ने मज़ाक में कहा कि 'महाराष्ट्रीयन तो दाल चावल की तरह उर्दू बोलते हैं।' दिलीप की इस बात से लता बड़े सोच में पड़ गईं और उन्होंने घर आकर उर्दू पढ़ने का फ़ैसला किया और उर्दू भाषा सीखनी शुरू की। और उर्दू भाषा में वह पारंगत हो गई।
वक्त आने पर बता देंगे तुझे ऐ आसमां..
भारत की सुर साम्राज्ञी, सुर कोकिला लता मंगेशकर जी के निधन से पूरा देश शोक में डूब गया है। उनका निधन निश्चिततौर पर देश के लिए अपूर्णीय क्षति है। 20 से अधिक भाषाओं में हजारों गीतों को आवाज़ देने वाली लता का निधन एक स्वर्णीय युग का अंत है। ये एक ऐसी अपूर्णीय क्षति है जिसको कभी भरा नहीं जा सकेगा।
जो कहीं गई न मुझसे वह जमाना कह रहा है.....
लता मंगेशकर की मृत्यु एक युग का फासला है, उनके संगीत और मधुर सुर ताल का संयोग एक अद्भुत समा बांधते थे, उनके जीवन की हर शह उन्ही के गीतों में ढली हुई थी, परन्तु विधाता की अटल सत्यता आज सुर मौन हो चुका है और साज लगभग ख़ामोश। जीवन का बीता हुआ सम्पूर्ण बसंत, संघर्षों की आंच में कुंदन बनकर निखरा है। 13वर्ष की अल्पायु में लता,का जीवन 93 वर्ष तक उतार चढ़ाव से गिरा रहा, अनगिनत पड़ाव देखने के बाद भी वह लोकप्रियता के जिस शीर्ष पर पहूंची, वहां पर पहुंचना केवल मात्र एक आभासी दिस्वप्न सा था। उनका व्यक्तिगत जीवन त्याग,समर्पण, सौम्यता, सादगी की मिसाल है।
आज अगर भर आई है
बूंदे बरस जाएगी
कल क्या पता किनके लिए
आँखें तरस जाएगी...
अपने जीवन के लम्बे संघर्षों को जी चुकी लता मंगेशकर जहां खुद कहती थीं कि मैं अगले जन्म में पुनः लता मंगेशकर बनना नहीं चाहूंगी, वहीं यह हम उनके एक युग को बुलाएं नहीं भुला पाएंगे। मृत्यु सदैव शोक और विषाद का विषय नहीं होता है। मृत्यु जीवन की पूर्णता है। लता जी का जीवन जितना सुन्दर रहा है, उनकी मृत्यु भी उतनी ही सुन्दर हुई है।
इसी सरज़मीं, इसी सरज़मीं पे हम तो रहेंग
जब हम न होंगे तब हमारी खाक पे तुम रुकोगे चलते चलते
वहीं पे कहीं, वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे, बन के कली बन के सबा बाग़े वफ़ा में ...
रहें ना रहें हम, महका करेंगे ... बन के कली, बन के सबा, बाग़े वफ़ा में ...
हे अगर दूर मंजिल तो क्या रास्ता भी है मुश्किल तो क्या...