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आज बिरज में होली रे रसिया...| होली विशेष

आज बिरज में होली रे रसिया...| होली विशेष

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फागुन के दिन चार, री गोरी खेल लौ होरी। फिर कित तू , कहां ये अवसर, क्यों ठानत यह।।

जीवन-रूप-नदी बहती सम, यह जिय मॉऺझ-विचार। 'हरिचंद' गर लगु पीतम के, करू होरी त्योहार।।

-भारतेंदु हरिश्चंद्र

अचानक बच्चों के शोर से मेरी आंख खुली। बहु मंजिला इमारत की खिड़की से झांक कर देखा पास ही की कच्ची बस्ती के कुछ बच्चे टूटी फूटी पिचकारी से एक-दूसरे पर पानी फेंक रहे थे। तभी ध्यान आया कि दो दिन बाद होली है। होली रंगों का त्योहार है। रंग ही जीवन के रस हैं। त्योहार चाहे कोई भी हो जीवन में एक नई ऊर्जा, स्फूर्ति का संचार करते हैं। त्योहार हमारी संस्कृति सभ्यता की पहचान है। इस संस्कृति के कारण ही मनुष्य में मनुष्यता के गुण विद्यमान है। जीवन का ढंग हमारी संस्कृति है। भारत सदा से ही विश्व में सभ्यता एवं संस्कृति का सिरमौर रहा है। देश में मनाए जाने वाले विभिन्न त्योहार हमारी संस्कृति के अटूट अंग हैं। हमारे देश में त्योहारों की जितनी विविधताएं हैं, उतने विभिन्न रंग अन्यत्र देखने को नहीं मिलते।

प्राचीन काल से ही विभिन्न त्योहार अत्यंत उत्साह , हर्ष और उमंग के साथ मनाए जाते रहे हैं। समाज और समाज के लोगों की सहभागिता ही इन त्योहारों को परवान चढ़ाती है। त्योहारों को मनाने के पीछे केवल आध्यात्मिक और पौराणिक मान्यताएं एवं मूल्य ही नहीं है, बल्कि यह हमारी सामाजिक, नैतिक, मानवीय और पर्यावरणीय मूल्यों से भी जुड़े हैं। यह त्यौहार ही है, जो हमें एकता के सूत्र में बांधते हैं। इनसे आपसी प्रेम, सहयोग, भाईचारा, करुणा, सहिष्णुता, सांप्रदायिक सदभावना का विकास होता है। किसी न किसी रूप से यह हमारी प्राचीन संस्कृति से संबंद्ध है। वर्तमान में इन त्योहारों को मनाने का तरीका धीरे-धीरे बदलता जा रहा है। वह अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। शहरीकरण ,आधुनिकरण की दौड़ ने इसके मूल स्वरूप को विकृत कर दिया है।

 "भारत एक पर्वों तथा त्योहारों का देश है, परंतु इनके मनाने के दर्शन में भौतिकता और धन संपत्ति का अधिक समावेश हो गया है।" 

आज अनायास ही इन बच्चों ने बचपन की होली के दिन याद दिला दिये और मुंह से निकल पड़ा , "आज बिरज में होली रे रसिया..." गीत संगीत के बिना होली की बहार अधूरी है। आज के बच्चें और किशोर क्या समझे इस गीत के महत्व को। छोटे, बड़े सभी को इंतजार रहता था होली का। जिस गली मोहल्ले से निकलो यह आवाज़ जरूर आती थी 'आज बिरज में होली रे रसिया'। पिछले कुछ वर्षों से महानगरों और बड़े बड़े शहरों में हर त्यौहार की तरह होली का भी रूप बदल गया है। बदलते समय के साथ साथ हमारी जीवन शैली और रहन सहन में भी बहुत बदलाव आ गया है। जिसका प्रभाव त्योहारों पर भी देखा जा सकता है। पवित्रता और सात्विकता की जगह त्योहार आज व्यवसायिक और आडम्बर मात्र बनते जा रहे हैं। बचपन में होली पर एक दूसरे के घर जाकर होली की शुभकामनाएं देते थे। बुजुर्गों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेते थे। गले मिलते थे। पकवानों की खुशबू घर में घुसते ही मन को प्रफुल्लित कर देती थी। एक दूसरे को बेझिझक रंग लगाते थे चाहे परिचित हो या अपरिचित। मन में कोई कटुता नहीं थी। पैसों का कोई दिखावा,आडंबर नहीं था । अमीरी गरीबी का कोई भेद नहीं था। होली के रंगों में सब एक हो जाते थे। पहचानना मुश्किल होता था कि कौन बड़े साहब का बच्चा है, और कौन चपरासी का। उस होली में एक सरलता थी, सहजता थी, वास्तविकता थी। अब उस मेल मिलाप का रिवाज कम होता जा रहा है।

आज उस सामाजिक प्रेम, भाईचारे का दायरा सिमट कर व्हाट्सएप और फेसबुक के एक मैसेज ' हैप्पी होली ' में बदल गया है। छोटे हो, बड़े हो, बुजुर्ग हो या किसी भी आयु वर्ग के हो सब को एक ही मैसेज फॉरवर्ड करके हम त्यौहार मनाने के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं। मिठाइयों का स्थान ड्राई फ्रूट्स ने ले लिया है। गुजिये का चॉकलेट ने, रही सही कसर पिज़्ज़ा ने पूरी कर दी। ठंडाई की ठंडक कोल्ड ड्रिंक्स ने पूरी कर दी। गुजिया, ठंडाई और भांग के बिना होली का मज़ा फीका पड़ गया है। पकवानों की महक अब धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं। घर पर पकवान बनाने की बजाय आज होटलों में जाकर खाना खाने में बड़प्पन का अहसास होता हैं। ये समाज में हमारी अच्छी आर्थिक स्थिति को दर्शाने का साधन बन गया है। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है वह एक दूसरे के घर उपहार भिजवा देते हैं। त्योहारों की खुशी से बढ़कर इस बात की होड़ लगी रहती है कि किसने किसको कितने महंगे उपहार दिए हैं । बहुमंजिला इमारतों की खिड़कियों में से अंग्रेजी बोलने वाले बच्चे झांक कर सड़क पर खेलते हुए बच्चों को देखकर ही अनुमान लगा लेते हैं कि होली कैसे खेली जाती है। उच्च वर्गीय बच्चों का स्टेटस आड़े आ जाता है सड़कों पर खेलते बच्चों के साथ खेलने में । हालांकि गांवों में अभी भी पुराने रीति रिवाज देखने को मिलते हैं। महानगरों में तो बस खानापूर्ति ही रह गई है। 

त्योहार अब पाश्चात्य रंगों में रंगते जा रहें हैं। अब वेलेंटाइन डे, हेलोवीन डे, रोंज डे, चाकलेट डे, अधिक भाने लगे हैं। 

आधुनिकता अच्छी है। वक्त के साथ बदलाव भी जरूरी है लेकिन अपनी संस्कृति, सभ्यता और मूल्यों को खोने के बदले नहीं। अपनी परम्पराओं और रीति रिवाजों को मनाते हुए भी हम आधुनिक हो सकते हैं। यह अलग बात है कि इस वर्ष कोरोना के कारण हमें सामाजिक दूरी का ध्यान रखना होगा। परंतु इसके बावजूद भी अपनी परंपराओं को निभाते हुए उसी सात्विक, सहज और पवित्र भावना से होली मनाएंगे। परंपराओं को जीवित रखेंगे, जिससे आने वाली पीढ़ियों तक हमारी संस्कृति, हमारे त्योहार सुरक्षित रह सकें। बच्चों को अपनी संस्कृति और रीति रिवाजों से अवगत कराने का सबसे अच्छा साधन त्योहार ही है। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि, "संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान, और भविष्य का सर्वागपूर्ण प्रकार है।"

सड़क पर बच्चे अभी भी होली खेल रहे हैं। मेरा मन अभी भी उलझा है बचपन की उस होली में, वो गीत अभी भी गूंज रहा है-  आज बिरज में होली रे रसिया...........

"उड़ने दो रंगों को इस बेरंग जिंदगी में, एक त्योहार ही तो है जो हमें रंगीन बनाते है।"


Dr Rinku Sukhwal

M.A. (Political Science, Hindi), M.Ed., NET, Ph.D. (Education) Teaching Experience about 10 years (School & B.Ed. College) Writing is my hobby.

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