हमारी संस्कृति सभ्यता को आदर सहित नमन है, फिर भी कुछ ऐसी घटनाओं का आना और अंध श्रद्धा के रूप में स्वीकारना, पाखंड, ढोंग और आडम्बर को बढ़ावा देना ही है जो इस बात को प्रकट करते है कि हमने हमारी बुद्धि और विवेक को अज्ञानता रूपी धनिकों के पास गिरवी रख दिया है। हम क्रमबद्ध तरीके से घटित कुछ ग़लत घटनाओं को सहमति से स्वीकारते हैं और असहमति होने पर भी स्वीकारोक्ति पर प्रश्न चिन्ह भी नहीं लगाते हैं, कि यह सही है अथवा ग़लत। महादेवी वर्मा जी की समस्त कविताएं हिन्दी साहित्य जगत में दैदीप्यमान सूर्य की तरह रहीं हैं। उनकी सच्चाई उकेरती लेखनी के आगे हम सब नतमस्तक हैं। कुछ किंवदंतिया, कुछ अज्ञात तथ्य अथवा मनगढ़ंत बातें भी हो सकती है, जो यह बतातीं है की महादेवी वर्मा जी की पति के साथ अनबन हुई और उन्होंने उसे छोड़ दिया। उसके जीवित रहते हुए भी उन्होंने क्रोधवश विधवा का परिधान पहनना शुरु किया। महादेवी वर्मा जी की असामयिक जीवन की परिस्थितियों से लड़ाई उनके भावों में प्रकट होती है।"मैं हैरान हूं " यह कविता यद्यपि प्राप्त जानकारी अनुसार कहीं भी पाठ्य पुस्तकों में नहीं रखीं गई है, शायद साक्ष्य भी अनुपलब्ध हो की यह कविता महादेवी वर्मा जी के द्वारा ही लिखी हों, फिर भी तथाकथित उदात्त संस्कृति पर संकलित तथ्यों के आधार पर भावों का गहरा प्रहार आन्तरिक रोष का प्रकटीकरण ही है।
"मैं हैरान हूँ " -महादेवी वर्मा
मैं हैरान हूं यह सोचकर
किसी औरत ने उंगली नहीं उठाई
तुलसी दास पर, जिसने कहा
"ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।"
मैं हैरान हूं,
किसी औरत ने
नहीं जलाई "मनुस्मृति"
जिसने पहनाई उन्हें
गुलामी की बेड़ियां।
मैं हैरान हूं,
किसी औरत ने धिक्कारा नहीं
उस "राम" को
जिसने गर्भवती पत्नी को
जिसने परीक्षा के बाद भी
निकाल दिया घर से बाहर
धक्के मार कर।
किसी औरत ने लानत नहीं भेजी
उन सब को, जिन्होंने
"औरत को समझ कर वस्तु"
लगा दिया था दाव पर
होता रहा "नपुंसक" योद्धाओं के बीच
समूची औरत जाति का चीरहरण।
मै हैरान हूं यह सोचकर
किसी औरत ने किया नहीं
संयोगिता-अंबा - अंबालिका के
दिन दहाड़े, अपहरण का विरोध
आज तक!
और मैं हैरान हूं,
इतना कुछ होने के बाद भी
क्यों अपना "श्रद्धेय" मानकर
पूजती है मेरी मां - बहने
उन्हें देवता - भगवान मानकर।
मैं हैरान हूं,
उनकी चुप्पी देखकर
इसे उनकी सहनशीलता कहूं या
अंध श्रद्धा, या फिर
मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा?
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(महादेवी वर्मा जी की यह कविता, किसी भी पाठ्य पुस्तक में नहीं रखी गई है,क्योंकि यह भारतीय (तथाकथीत उदात्त) संस्कृति पर गहरी चोट करती है। यद्यपि प्राप्त संकलित कविता और तथ्य अज्ञात है, फिर भी भावों की कठोर स्वअभिव्यक्ति ही है, वहीं कहीं कहीं जगह इनके विचारों का ज्वलन्त चित्रण अप्रत्यक्ष रूप से मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा को भी उजागर करता है। संकलित तथ्य - अज्ञात।
कुछ ऐसी घटनाओं का आना और अंध श्रद्धा के रूप में स्वीकारना, पाखंड, ढोंग और आडम्बर को बढ़ावा देना ही है जो इस बात को प्रकट करते है कि हमने हमारी बुद्धि और विवेक को अज्ञानता रूपी धनिकों के पास गिरवी रख दिया है।