तब देख बहारें होली की।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में तब पिचकारी हो।
तब देख बहारें होली की।
(नज़ीर अकबराबादी)
हमारी संस्कृति से जुड़ने का आधार होली, मंजीरा, ढोलक, मृदंग की ध्वनि से गूंजता रंगों से भरा त्योहार होली,अनुराग, उल्लास, हास-परिहास का त्यौहार होली, रमणीय आनंद लेकर अवतरित होते हुए रस-रंग का महकता आह्लाद बनकर घर-घर का उत्सव बन जाता है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला त्यौहार होली का उत्सव अपने साथ सकारात्मक ऊर्जा लेकर आता है और आसमान में बिखरे गुलाल की तरह रंगों और आन्तरिक प्रसन्नता की ऊर्जा को चारों ओर बिखेर देता है।
होली के रंगों की होती नही है कोई जात,
रंग तो लाते है बस खुशियों कि सौगात,
प्रेम-अनुराग की उमड़ती-घुमड़ती सरिता सारी वर्जनाओं को तोड़ कर हर गली-मोहल्लों, घर-घर में सारे लोगों की मस्ती का कारण बनकर मानव निर्मित भेदभाव के पाखंड के सारे लिबास एक तरिकें से हटा दिए जाते हैं और शेष रह जाता है, प्रेम का दिव्य स्वरूप। बच्चों,जवान, वृद्धों की टोलियां मानों यह कहतीं हुईं झुमतीं नाचतीं गातीं है.
तुम भी झूमों मस्ती में,
हम भी झूमें मस्ती,
शोर हुआ सारी बस्ती में,
आओ झूमे सब होली की मस्ती में।
हर धर्म, संप्रदाय, जाति के बंधन खोलकर भाई-चारे का संदेश देती हुई, उड़ते गुलाल व ढोलक की ताल से शुरू होती हुई, होली भारत के कोने- कोने में विभिन्न प्रकार से हर्षोंल्लास के साथ मनाई जाती है।
फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर...
'स्वर्ग बैकुंठ में होरी जो नाहि तो कोरी कहा लै करे ठकुराई।'
राधा-कृष्ण के जीवनकाल से ही अनुराग के इस त्योहार को ब्रज के गांव-गांव, घर-घर में लोग राग-रंग, मौज-मस्ती, हास-परिहास, गीत-संगीत के साथ परंपरा से आज तक मनाते आ रहे हैं। मथुरा और वृंदावन में होली की अलग छटा नज़र आती है।
लोग “फाग खेलन आए नंद किशोर” और “उड़त गुलाल लाल भए बदरा” आदि अन्य लोक गीत का गायन करतें हुए इस पावन पर्व में डूब जाते हैं। ब्रज में ऐसा कोई हाथ नहीं होता जो गुलाल से न भरा हो, पिचकारियों के सुगंध भरे रंग से सराबोर न हो। गुलाल के रंगीन बादल से ब्रज, मथुरा की धरती, आसमान मानो रंगों से सराबोर हो जाती है। सदियों से गाया जाना वाला यह लोकगीत नवगति, नवलय और नवताल के साथ सारे वातावरण में गूंज उठता है।
बाज़ार, गली और कूचों में ग़ुल शोर मचाया होली ने...
चले भी आओ भुला कर सभी गिले-शिकवे ... होली में,
बरसना चाहिए होली के दिन सब और रंग गुलाल.. होली में...!!
टोलियों में रंग-गुलाल में सने नर-नारियों के झुंड के झुंड एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल की वर्षा करते हुए, गली-गली मोहल्लों-मोहल्लों में एक अजब मस्ती में डूबे हुए गाते फिरते हैं...!!
आज बिरज में होरी रे रसिया,
होरी रे रसिया बरजोरी रे रसिया।
ब्रज के वैष्णव देवालयों में भी होली उत्सव पूरे माह चलते हैं जिसमें प्राचीन भारतवासियों के मन्मथ पूजन, गायन-वादन एवं नृत्य के समस्त फागुन के उत्सव आज भी जीवित हैं।
बुरा न मानो होली है, जोगीरा सा रा रा ...सा रा रा रा रा रा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा...
होली के माहौल में जोगीरा न हो तो होली का रंग कैसे चढ़ेगा। फागुन के गीत, जोगीरा, चैतावर और धमार, आज लोग भूल रहे हैं। जोगीरा अवधी, भोजपुरी, बनारसी काव्य नाटक की एक मिश्रित विधा होती है, इसमें हास्य और व्यंग्य का ज़बरदस्त पुट होता है इसे कबीरा भी कहते हैं। हिंदी, उर्दू, भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी आदि पचास से अधिक भाषाओं का अद्भुत समन्वय जोगीरा भारतीय काव्य विधा का अव्यवसायिक संकलन है। यह मुख्यतः चैत्र मास में होली के अवसर पर ही गाया जाता है। होली की मस्ती के साथ जोगीरा अपने आसपास के समाज पर भी चोट करता हुआ नज़र आता है। यहीं कारण है जोगीरे की तान में आपको सामाजिक विडम्बनाओं और विद्रूपताओं पर तंज देखने को मिल जाता है। संभ्रांत और प्रभुत्व वर्ग पर जोगीरा के बहाने गरियाने और उन पर गुस्सा निकालने का निराला तरीका जोगीरा जिसके बाद गदगद हो, मनुहार करते हुए कह भी दिया जाता है बुरा न मानो होली है।
बचपन के रंगों से सजी यह होली,जवानी के उल्लास से भरी यह होली, बुढ़ापे के तजुर्बे से भीगी यह होली, आओ फिर से खेले यह रंग बिरंगी होली...!
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो...
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों,
तब देख बहारें होली की।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।..