मेंढक की टर्र टर्र से गुंजा पोखर ताल,
पुछों मत इसकी ख़ुशी, झुम झुम देखों चाल...!
बतीयाता है यह मेघ से, प्राणी देखो वाचाल...!
बनकर मंडूक कूप का नृप दुनिया को समझाएं चाल...!!
हम कुएँ के मेंढक है, कुआं हमारा दायरा है, और यहीं हमारा सामाज्य। हमारा अपना दल, हमारी अपनी सत्ता, हमारा अपना नेतृत्व। अन्य मेंढको की गुलामी जिन्दाबाद। चूंकि धन बल, पद बल, भुजा बल के कारण हम अपनी अभिव्यक्ति उस कुएँ के दायरे में ही निश्चित करने लग जाते हैं कि हम ही तो है इस कुएँ के साम्राज्य के अधिपति, और एक भ्रामक परिकल्पना के कारण उस निश्चित दायरे के अलावा हमें बाहर की दुनिया शुन्य सी प्रतीत होने लग जाती है। अगर इसी बीच गलती से भी कोई समुद्र का मेंढक सीमित कुएँ के दायरे में जो की समुद्र के मेंढकों के लिए निषेध क्षेत्र था, में प्रवेश कर जाता है तो, कुएँ के मेंढक सामुहिक रूप से समुद्र के मेंढक का बहिष्कार कर देते हैं और वह भी एक तरह से आक्रामक रवैये में।
कुएँ के मेंढकों के विशेषज्ञ विशेष कुटनीति से अपना संविधान हमेशा साथ लेकर चलते हैं, वह इस बात पर सदैव सहमत रहते हैं की हमारा अपना कानून हैं, हमारे अपने नियम है, जिन्हें अन्य मेंढकों को पालन करना अनिवार्य है यह नियम ऐच्छिक नहीं है। हमारे कुएँ की सीमा के हम राजा है। नियमों की धज्जियां तो उस समय उड़ जाती है जब क्या उचित है क्या अनुचित इस मापदंड का निर्धारण कुएँ के मेंढकों का अपना एक सर्वेसर्वा राजा जो मेंढकों के द्वारा घोषित है वहीं करता है। कुएँ के मेंढकों के नायक का यहीं नारा रहता है, कुपमंडूकता में रहना और अन्य की प्रगती को तोडना हमारा ध्येय है,और हम इस ध्येय को अन्य मेंढको पर लागू करके रहेंगे।
यहां पर एक नियम हमेशा चलता है, इस कुएँ में हमेशा अन्य मेंढक विशेष समुद्र से आएं मेंढक को विशेष उद्बोधनों से सम्बोधित करते है कि, तुम्हें यहां रहना है या नहीं, अगर तुम्हें हमारे कुएँ में रहना है तो हमारे नियमों का अनुसरण करना ही होगा,नहीं तो हमारे कुएँ की सीमा से बाहर निकलो। कभी कभी अकस्मात, इन कुओं के मेंढकों में से एक अनुभवी मेंढक बाहर निकल कर विशाल समुद्र में जाने का प्रयास करता है, तो येन केन प्रकारेण सारे कुएं के मेंढक, विशेष कर मुखिया आगे बढ़ने वाले मेंढक की पुर जोर सिफारिशों से टांग खिंचने का प्रयास करता है, और इस टांग खिंचाई में उनकी मदद की भावना भी यहीं रहतीं है की अरे अरे भाई, हम ने तो इस कुएँ के परिसीमन में जीवन व्यतीत कर दिया, तुम कैसे आगे बढ़ जाओगे, चलों नीचे आओं, तुम्हारी सफलता का ग्राफ हम कभी भी आगे बढ़ने नहीं देंगे, यहीं हमारा तुगलकी फरमान है,जो बाहर जाने वाले मेंढक के लिए विशेष रूप से जारी किया गया है। और इसी जद्दोजहद में अगर गलती से भी विशालकाय समुद्र का मेंढक हमारे कुएँ में आ जाएं तो, हम पुरी ताकत से उस समुद्र के मेंढक को बाहर धकेलने का प्रयास करेंगे, की कहीं उन्नत किस्म का मेंढक हमारे साम्राज्य का अधिपति न बन जाए। हम कुएँ के मेंढक कभी भी नहीं चाहेंगे कि हमारा सम्राट उत्कृष्ट बुद्धि का हों। इस कार्य में हम पुरी ऊर्जा और सारी योजना लगा देते हैं कि इस समुद्री मेंढक को पुरी तरह से बहिष्कृत कैसे किया जाए।
बनकर कूप का मंडूक, मेंढक सब को राजा समझने लगा। मैं सब जानता हूं यहीं सोच इंसान को कुएं का मेंढक बना रहीं हैं।
हमारे जीवन में कुएँ और समुद्री मेंढक हमेशा छाएं रहते हैं। कुपमंडूकता की परिभाषा हम इस कहानी से भी समझ सकते हैं...
एक कुएँ में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ। धीरे-धीरे यह मेंढक उसी कुएँ में रहते-रहते मोटा और हष्ट पुष्ट हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेंढक, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा।
कुएँ के मेंढक ने पूछा- 'तुम कहाँ से आए हो?'
इस पर समुद्र से आया मेंढक बोला- मैं समुद्र से आया हूँ। समुद्र! भला वह कितना बड़ा है? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह कुआँ? और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी।
समुद्र वाले मेंढक ने कहा- मेरे मित्र! भला, समुद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?
तब उस कुएँ वाले मेंढक ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा- तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा है?
समुद्र वाले मेंढक ने कहा- तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से कैसे हो सकती हैं?
अब तो कुएँ वाले मेंढक ने कहा- जा ... जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।"
भीड़ से अलग निकलना ही हैं कुपमंडूकता का विलोमार्थ हैं।
दरअसल कुएँ के मेंढक ने कुएँ की दुनिया से बाहर निकल कर कुछ देखा ही नहीं था, इसलिए उसने यह बात झुठी समझी और उस समुद्री मेंढक को कुएँ से बाहर निकाल दिया। यहीं कठिनाइयां ही हमारी जीवन शैली में भी सदैव रहतीं हैं।
मैं हिन्दू हूँ वह भी कुएँ में बैठा यहीं समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने कुएँ में बैठे हुए यहीं समझता है कि सारा संसार उसी के कुएँ में है। मुस्लिम, और सिक्ख भी अपने कुएँ में बैठ कर उसी को सारा ब्रह्मांड मानता है। वास्तव में देखा जाएं तो कुओं के मेंढकों का साम्राज्य एक समुदाय विशेष अथवा एक जाति विशेष अथवा,एक राजनीतिक दल विशेष में ही नहीं होता है, कुएं के मेंढक हमें हमारे जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई देंगे।
हम चाहे ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य शूद्र हों, चाहें किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी व्यवसायिक या नौकरी पेशे से हो, कुप मंडुकता हमें हर क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से प्राप्त हो जाएगी, पर यह हमारा स्व का निर्णय है कि हम कुप मंडुकता स्वीकार्य करते हैं अथवा इसका विरोध करते हैं। कुपमंडूकता का ध्येय ही हमारी पहचान की मानसिक गुलामी को चरितार्थ करता है।
जिंदगी में सभी आपसे खुश नहीं रह सकते हैं, सभी को खुश रखना जिंदा मेंढक को तोलने जैसा है, एक को बैठाओं तो दूसरा कूद जाता हैं। इसलिए ही तो व्यर्थ ज्ञान देकर नासमझ लोगों पर अपना समय नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि कितना भी समझाओं पर कोई अपनी मूल विचारधारा को नहीं त्याग सकता है। जैसे अगर हम मेंढक को लाख चलना सिखाएगें वह कुद कुद कर ही चलेगा।
जिंदगी में सभी आपसे खुश नहीं रह सकते हैं, सभी को खुश रखना जिंदा मेंढक को तोलने जैसा है, एक को बैठाओं तो दूसरा कूद जाता हैं। इसलिए ही तो व्यर्थ ज्ञान देकर नासमझ लोगों पर अपना समय नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि कितना भी समझाओं पर कोई अपनी मूल विचारधारा को नहीं त्याग सकता है।