अभी अभी तो सुबह हुई थी,
सूरज की तपिश भी न देख पाईं थीं
अभी धूप का खिलना भी बाकी था।
और सांझ हो गई।
बस पतझड़ के पत्ते ही तो गिर पाए थे अभी
बाकी था, बसंत में फूलों का खिलना।
सावन की फुहार में सखियों संग झूलना।
वो तपती धूप में पेड़ से आमों का चुराना
और सांझ हो गई।
बस मां का दुलार ही तो देख पाई थी अभी।
बाकी था बाबा की आंखों से आंसू छलकना।
बरसात के पानी में कागज़ की नाव चलाना।
वो मिट्टी से सने पैरों को आंगन में उकेरना।
और सांझ हो गई।
बस कुछ दिन ही तो रह पाई थी नैहर में अभी।
बाकी था गुड्डे- गुड़ियों का ब्याह रचाना ।
उसकी विदाई में आंखों का छलकना ।
वो कुमकुम लगे हाथों को दीवार पर छापना।
और सांझ हो गई।
बस चलना ही तो सीख पाईं थीं अभी।
बाकी था वो तितलियों के पीछे भागना।
बरगद पर बैठे जुगनूओं को पकड़ना।
वो अंधेरी रातों में छत पर तारों का गिनना।
और सांझ हो गई।
बस यौवन में कदम रखा ही तो था अभी।
बाकी था अजनबी से नैनों का टकराना।
दिल का मचलना और नींदों का उड़ना।
वो मन ही मन बिना बात मुस्कुराना।
और सांझ हो गई।
जीवन की भाग दौड़ में जाने कब आगे निकल गई,
वो मस्ती, वो नादानियां जाने कहां पीछे रह गई।
चंद लम्हें और जी लेती, कुछ नासमझी और कर लेती।
बाकी था अभी तो वो बेवजह चिल्लाना, वो हंसना,
रोना, रुठना मनाना और फिर खुद ही मान जाना,
पर अब सांझ हो गई।
और सांझ हो गई।