तालियों की आवाज़ों तक ही हमारी पहचान सिमट जाती है
समाज का हिस्सा बनाने की हसरत उलाहनों के बवंडर में मिट जाती है
हम भी तो ऊपर वाले की औलाद होते है
हमारे भी मन में प्यार पाने की ख्वाब होते है
फिर क्यों हमे पैदा होते ही छोड़ दिया जाता है
दूसरे बच्चे पैदा होने पर नाचे जो, उसके पैदा होने पर क्यों घर में क्यों मातम छा जाता है
तो क्या हुआ हमारी शरीर अलग बनावट तुम आम लोगों से न मिल पाती है
हमे समझता नहीं कोई, बस तालियों की आवाज़ में हमारी पहचान सिमट जाती है
मानते है! न नारी, न सम्पूर्ण पुरुष होतें है हम
ये मुर्ख समाज क्या समझे अर्धनारीश्वर का साक्षात स्वरुप होतें है हम
क्यों हमे समाज में बराबरी का ओहदा नहीं मिल पाता है
क्यों हमारे वजूद को मज़ाक बना दिया जाता है
क्यों हमारी आवाज़ बस बधाइयों के गीत्तों तक रह जाती है
बस तालियों की आवाज़ में क्यों हमारी पहचान सिमट जाती है
एक बार हमे अपना कर तो देखो हम भी समाज का सम्मान बढ़ाएंगे
प्यार की मिठास बढ़एंगे हम समाज में हम तो दूध में चीनी की तरह घुल जायेंगे
हिजड़ा कहो या किन्नर पर अब ये कुछ कर के जरूर दिखाएगी
जिसने दुनियां के लिए मारी हो ताली अब दुनियां उसके काम पे ताली बजाएग
थोड़ा सा साथ चाहिए तुम्हारा बस उसी की कमी मन को अंदर तक तोड़ जाती है
चाहे कुछ भी करे हम पर आज भी बस तालियों में हमारी पहचान सिमट जाती है