गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में । वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले...
चिंदी से सिंधु सपकाल... चिंदी मर गई यह जीवन सिंधु सपकाल का है। जो उनके लिए जिएंगी जिनका कोई नहीं। यह वहीं चिंदी है जिसने श्मशान की चिता पर रोटी सेकीं, और आज महाराष्ट्र में अनाथ बच्चों की मदर टेरेसा के नाम से पहचानी जाती है।
न तन पर कोई पहनने को वस्त्र, न ही पेट भर के रोटी,न मूंह में रोटी का निवाला,न सर पर छत, और नहीं इनको सहारा देने के लिए कभी कोई हाथ आगे बढ़ें,पर आज महाराष्ट्र की मदर टेरेसा,सिंधुताई सपकाल जो अपने बच्चे को त्याग कर अनाथ बच्चों की मां बन गई। महाराष्ट्र 14 नवंबर 1948 को महाराष्ट्र के एक गरीब परिवार में जिस लड़की का जन्म हुआ। जिसका स्वागत 'चिंदी' नाम से किया गया। चिंदी अर्थात फटा हुआ कपड़ा, चिंदी अर्थात कपड़े के ऐसे चिथड़े जिन्हें कोई चाहता ही ना हो।
खेलने-कूदने की 10 वर्ष की उम्र में चिंदी की शादी 35 साल के आदमी से कर दी गई। जिसका रोज का क्रम था कि, घर का सारा काम करके गोबर इकट्ठा करने के बाद भी तीन से चार दिन में एक बार पत्नी चिंदी को पिटना। कारण पति अनपढ़ था चिंदी पढ़ना चाहती थी, गोबर इकट्ठा करते हुए जहां भी कागज़ का टुकड़ा मिल जाता चिंदी उठा कर पढ़ने या कुछ लिखने लग जाती, उसे पढ़ता देख चिंदी का पति उस कागज़ के टुकड़े को जला देता या फाड़ कर फेंक देता, और उसकी पिटाई शुरू कर देता, फिर भी चिंदी को पढ़ने लिखने का शौक था, वह कागज़ उठाती पढ़ती लिखतीं, पति न देख लें इस डर से चिंदी कागज़ के टुकड़े को चबा कर खा जाती।
वन विभाग के रास्ते गोबर इकट्ठा करने पर मजदूरों को मजदूरी न मिलने पर वन अधिकारियों की शिकायत चिंदी के माध्यम से वन मंत्रियों से की गई, इस प्रयास में मजदूरों को मज़दूरी तो मिलने लग गई, परन्तु इसी बीच किसी अन्य शक्स ने चिंदी के चरित्र पर आक्षेप लगाया, उसका प्रभाव, चिंदी को उसके पति ने पिटना शुरू कर दिया और इतना मारा कि लगभग वह पूर्ण बेहोश हो गई।
गर्भवती चिंदी को मरा समझकर उसे उसके पति ने गौशाला में डाल दिया, और सारी गायों को खोल कर चला गया,ताकि यह साबित हो जाए की अगर वह पिटाई से बच भी जाएं तो गायों के खुरों से कुचल कर मर जाएंगी। बुरी तरह से मारपीट और अर्द्ध बेहोशी की हालत में ही चिंदी ने एक बच्ची को जन्म दिया। परन्तु जब उसे होश आया तब उसने देखा कि एक गाय चिल्ला चिल्लाकर दूसरी गायों को चिंदी के पास आने से रोक रही थी। तब चिंदी को महसूस हुआ कि जब सब परिवार वालों ने ठुकरा दिया है तब गाय ने फर्ज निभाया। अब चिंदी के पास समस्या गर्भ नाल को काटने की थी, उसने अपने पास का पत्थर उठाया, और गर्भनाल पर प्रहार करना शुरू किया, और लगभग 16वें प्रहार में बच्चे का नाल अलग हुआ और वह नाल को वहीं गाड़ कर चिंदी ने अपने नवजात शिशु के साथ नदी में स्नान किया, और मन ही मन सोचा कि जिस बच्चे के जन्म में इतना संघर्ष में हुआ है तो वह अपने जीवन में हार कैसे मान सकतीं हैं।
चिंदी को अब एकमात्र सहारा अपना मायका लगा वह नवजात शिशु को लेकर मायके पहुंची तो वहां पर भी मां ने कहां कि लड़की यहां से ससुराल जाती है तो चार कंधों पर ही वहां से निकलती हैं, तुम्हारी इस घर में भी अब कोई जगह नहीं है। अब चिंदी धड़ाम से धरातल पर गिर पड़ी थीं। वह वहां से अपनी बच्ची को लेकर रेल पटरी पर मरने पहूंच गई। पटरी पर वाइब्रेशन हो रहा था, मरने का विचार त्याग कर चिंदी पुनः चेतन अवस्था में वापस आ जाती हैं, इस नवजात शिशु को मारने या उसके स्वयं के मरने में शिशु का कोई अपराध नहीं है। वापस चिंदी रेल पटरी से बच्चे को उठा कर रेल्वे स्टेशन पहूंच गई। जहां कुछ भिखारी झुंड बनाकर भजन गाकर भीख मांग रहें थे, और इस तरह से वह भिखारी अपने दिनभर के खानें का सराजाम कर रहे थे। उन्हें खाना मिलता देख कर, चिंदी को अपनी गोद में उठाए शिशु को पालने का एकमात्र यहीं सहारा उपर्युक्त लगा, वह भी भिखारियों के झुंड में शामिल हो कर भजन गाकर अपना और अपने नवजात शिशु का पेट भरने लग गई।
वक्त हमे हिंमत देता है।
श्मशान की चिता पर रोटी सेंक कर खायी।
अब चिंदी का आजिविका स्त्रोत रेल्वे स्टेशन पर घूम घूम कर गाना था,और रात को सुरक्षा का ठिकाना शमशान घाट था। एक रोज भिक्षा में चिंदी को पका हुआ भोजन न मिलकर भिक्षा मे आटा मिला। वह भुखी थीं, आटा लेकर अपने सुरक्षा स्थल शमशान घाट पर पहूंची, वहां पर एक चिता के अंगारे अभी भी जल रहें थे, उसने उसी पर ही रोटी सेंक लीं। चिंदी के रहने का स्थान,और सुरक्षा दायरा शमशान घाट पर था, पर आज पहली बार उसे शमशान में डर लगा था, मानों ऐसा लग रहा था जैसे कि वहां पर कुत्ते और श्मशान के पक्षी जोर शोर से चिल्ला रहें थे मानों कह रहे हों यहां पर तो रहने और खाने का हमारा अधिकार है, तुम यहां पर कैसे आ गयींं।
यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है...चिंदी
फिर से चिंदी का मन शमशान घाट से हट गया वह फिर समस्याओं से लड़ते हुए अपनी बच्ची के साथ जीवन लीला समाप्त करने के लिए दौड़ी। तभी चिंदी को लगा कि जैसे कोई उसे आवाज़ देकर बुला रहा है, बाबा मुझे पानी पिला दे, मैं मरने वाला हूं। चिंदी तुरंत रूकी, उसने भिखारी को कहां बाबा में खानें को रोटी देती हूं , अगर तुझे मरना है तो रोटी खा कर मर तु पानी पीकर क्यों मर रहा है। चिता पर सेंकी रोटी चिंदी ने उस भिखारी को खिला दीं, चिंदी ने सोचा मरने जा रहीं हूं और दूसरे को बचा रहीं हूं, भिखारी को खाना खिलाकर चिंदी को संतुष्टि हुई,और मरने का इरादा छोड़कर वह वापस शमशान घाटपर रहने आ गई।
अब चिंदी ने थोड़ी प्रगति कर लीं थीं, उसने कीर्तन कर करके कुछ अनाथ बच्चों को अपने पास पाल रखा था,वह जहां भी जातीं बच्चों की टोली के साथ भजन करतीं और जो खाना पैसा मिलता वह आपस मैं अनाथ बच्चों में बांट कर खा लेती। ऐसे ही एक दिन चिंदी किसी अन्य जगह अनाथ बच्चों के साथ भजन कीर्तन करने जाना था, फटे कपड़े देखकर टी.टी. उसे रेल मैं बैठने ही नहीं दे रहा था, चिंदी टिकट के पैसे देने को भी तैयार थीं, पर टी. टी. पैसे भी नहीं ले रहा था। इसी बहस में अचानक एक भिखारी आया उसने कहां कि कल तुम स्टेशन पर बहुत ही अच्छा भजन गा रही थीं, मेरे साथ चाय पिओगीं, चिंदी ने भिखारी के साथ चाय पिने को हां कर दी, इधर चिंदी का रेल के डिब्बे से बाहर निकलना हुआ उधर उसी रेल के डिब्बे पर बिजली गिरी और टीटी समेत कोई भी जिंदा नहीं बच पाया। चिंदी ने अपने आपको सम्भाला, उसने आस पास देखा वह भिखारी नज़र नहीं आया, चिंदी को लगा कि मानों उसे भगवान ने बचाया है वरना वह मर गई होती। उसने मन ही मन सोचा की तू चिंदी नहीं हो सकती। जिसे कोई ना चाहता हो। आज से तेरा नाम सिंधु सपकाल होगा। सिंधु जिसमें लहर होती है,तरंग होती है,उमंग होती है और सबको समाहित करने की शक्ति भी होती है। चिंदी मर गई यह जीवन सिंधु सपकाल का है। जो उनके लिए जिएंगी जिनका कोई नहीं।
वो सड़कों पर भीख मांगती ताकि अनाथ बच्चों का पेट भर सकें
अब सिन्धु ने अपने जीवन का उद्देश्य पा लिया था, इस उद्देश्य में उसकी अपनी बच्ची अवरोध न बने उसने अपनी बच्ची को पुने के एक ट्रस्ट में रखवा दिया। खुद आदिवासी बस्ती में रहकर अनाथ बच्चों की भोजन शिक्षा, व्यवस्था करने लग गई। सिंधु की बेटी ने ट्रस्ट की देखभाल में हायर एजुकेशन ली। अब 15, से 20 बच्चों का परिवार धीरे धीरे संस्था का रूप ले चुका था। अब तक इसमें सिंधु के हजारों बच्चे हो गये थे। लगभग 300 दामाद और 100 के करीब बहुएँ। इनका यह परिवार महाराष्ट्र की 5 बड़ी संस्थाओं में तब्दील हो चुका है। इन संस्थाओं में जहां 1 हजार अनाथ बच्चे (वैसे ताई की संस्था में अनाथ शब्द का उपयोग वर्जित है) एक परिवार की तरह रहते हैं, वहीं विधवा व परित्यक्ताओं को भी इनमें आसरा मिला है। ताई सबकी मां हैं और सभी के पालन-पोषण व शिक्षा-चिकित्सा का भार उन्हीं के कंधों पर है। रेलवे स्टेशन पर मिला , सिंधु ताई को वह पहला बच्चा आज उनका सबसे बड़ा बेटा है और पांचों आश्रमों का प्रबंधन उसके कंधों पर हैं। अपनी 272 बेटियों का वे धूमधाम से विवाह कर चुकी हैं और परिवार में 36 बहुएं भी आ चुकीं हैं ।
इधर सिंधु अपने बच्चों के जीने की व्यवस्था करने के साथ ही उनकी शिक्षा के बारे में भी सतर्क रहती। उन्हें प्रेरित करती। ताई के शब्दों में...आपको पढ़ना ही है। और तब तक पढ़ना है जब तक जीवन में आत्मनिर्भर नहीं हो जाते ।आज सिंधु के पालें हुए अनाथ बच्चों में कई बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, लॉयर, प्रोफ़ेसर, नर्स, टीचर, बिजनेसमैन हैं।
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कुछ समय बाद ही सिंधुताई का पति खुद सिंधु के पास आया, सिंधु ताई ने उसके साथ जाने से बिल्कुल मना कर दिया। उस समय उनके पति की हालत बहुत ही ख़राब थी। तब सिंधु ताई ने कहां कि तब मैं रोई थी। आज आप रो रहे हैं। तब मेरी साड़ी फटी हुई थी। आज आपकी धोती फ़टी है। अब स्थिति बराबर हो गयी है। मैं आपके साथ नहीं आ सकती लेकिन आप चाहें तो मेरे घर रह सकते हैं। बस एक ही शर्त है आपको मेरा बच्चा बनना होगा। मैं आपकी पत्नी नहीं बन सकती। मुझे बस एक ही रिश्ता पता है। मां बच्चे का रिश्ता। मैं बस एक ही रिश्ता जीती हूं । मां बच्चे का रिश्ता। चूंकि उस समय भी सिंधु ताई को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी तो सिंधु ताई ने अपने बच्चों से कहां अगर यह आदमी मुझे प्रताड़ित नहीं करता तो आपको मां कहां से मिलती ? अब यह परिवार का हिस्सा है। उनका ख्याल रखना है। आज सिंधु के पति दुनिया में नहीं है लेकिन इस घटना ने अपने सभी अनाथ बच्चों को सिखाया कि किसी को कैसे माफ किया जाता हैं?
वर्ष 2009 में सिंधु सपकाल को अमेरिका में मराठा साहित्य सम्मेलन में आमंत्रित किया गया । भाषण देने में असमर्थता होने पर भी उन्हें लगा क्या बोलुंगी, अगले ही पल सिंधु ने साहस जुटाया, उसने सोचा वह जिस देश से आयी है उसे मां, भारत मां कहते हैं। मां भारत मां की लाज तो रखनी होगी। सिंधु वहां गई । सिंधु ने स्टेज पर अपने अनुभव साझा किए और उनकी वह यात्रा सफल रहीं। अमेरिका की यात्रा के बाद सिंधु सपकाल महाराष्ट्र में सिंधु ताई के नाम से जानी जाने लगी। तब उन पर 2010 में निदेशक अनंत नारायण महादेवन के निर्देशन में 'सिंधु सपकाल'के नाम से मराठी फिल्म बनी। सिन्धु के जीवन पर बनने वाली इस फिल्म को नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ। डॉ एपीजे अब्दुल कलाम, श्रीमती प्रतिभा पाटिल, प्रणब मुखर्जी, रामनाथ कोविंद के द्वारा भी सिंधु सपकाल को सम्मानित किया गया है। सागर के समान अनवरत ममता बिखेरने वाली सिंधु सपकाल जीवन में सहन कर चुके उन दुखों का पहाड़ है, इस पहाड़ से निर्मलता और ममता का झरना निरंतर बह रहा हैं।
सिंधु ताई सपकाल मात्र चौथी कक्षा तक पढ़ी है, समाज सेवा शब्द से अनजान हैं, वह स्वयं कहतीं हैं कि समाज सेवा बोलकर नहीं की जाती है। अनजाने में आपके द्वारा की गई सेवा ही समाजसेवा है। यह करते हुए मन में यह भाव नहीं आना चाहिए की आप समाजसेवा कर रहे हैं। वह इन बच्चों को कभी अनाथ नहीं कहतीं हैं ,वह इन्हें अपना परिवार ही मानतीं हैं। ताई कहती हैं कि इस देश में भाषण से राशन मिलता है,और वह अपने परिवार के लिए राशन इकट्ठा कर लेंगी। सिंधुताई के मन की यहीं आवाज़ है, भगवान से यही मांग है कि मुझे कोई बच्चा न देना बस मेरा आंचल इतना बड़ा कर देना की अनाथ बच्चों को जरा सी धूप भी न लगे और दुःख इनसे कोसों दूर हो।
हमारे जीवन का हर क्षण प्रति क्षण संघर्षों से भरा हुआ है, पर यह भी ध्यान रखना कि हमारे-आपके जीवन में आने वाला सबसे कठिन संघर्ष , सामान्य आदमी से कुछ अलग ही होता है। - सिंधु सपकाल