"रणभूमि में एक युद्ध अर्जून लड़ने जा रहा था। एक युद्ध जीवन के संघर्ष का हम लड़ रहे हैं। यहीं हमारे जीवन का कुरुक्षेत्र हैं। हम आज के अर्जून हैं!"
भौतिकवादी प्रतिस्पर्धा व आधुनिक जीवन शैली के युग में, शरीर व मन के बीच तालमेल का अभाव हैं। मन कुछ पाने के लिए भागता है, शरीर उसके अनुरूप चलने में असमर्थ होता हैं। परिणाम स्वरूप तात्कालिन मानसिक विकृतियाँं, एवं विभम्र की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। संजीवनी, सर्वशास्त्रमयी, गीता जीवन शैली की इन दोराहों की स्थितियों को दूर करने का आधार हैं।
सम्पूर्ण विश्व को दिया गया भारत का यह संदेश, जो यह प्रदर्शित करता है कि इस संसार रूपी रणभूमि में हम सब अर्जून है, और कृष्ण जो हमारे हृदय में विद्यमान मन की अतुलनीय शक्ति हैं। परिणाम स्वरूप हमारे हृदय की दृढ़ता एवं स्थिरता ही हमें श्रेष्ठ मार्ग की और अग्रेषित करती हैं। यह उपदेश कठोर होने पर भी निरंकुश, तानाशाह द्वारा दिया उपदेश न होकर उन समस्त मानव जाति के लिए तीव्र उलाहना है जो जीवन रूपी रणक्षेत्र में परिस्थितियों वश लड़खड़ा जाते हैं। इनकी अर्द्धविक्षिप्त, विभ्रमित मानसिकता को स्वच्छन्द करना ही गीता का सार हैं। समुचे मानव मात्र के लिए दिव्य प्रेरणा देने वाला व्यावहारिक, व्यापारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय हर समस्या का कारण व समाधान प्रस्तुत करने वाली गीता जो हमारे जीवन के प्रती सकारात्मक दृष्टिकोण को निर्धारित करती हैं।
जीवन का उद्देश्य यह है कि उद्देश्य भरा जीवन हो,उद्देश्यों के प्रति सजग रहों।
‘‘जियो तो सक्रिय रूप से नैतिक जीवन जीयों।"
कृष्ण द्वारा प्रदत्त उपदेश हमें हमारे कर्तव्यों, लक्ष्यों, उद्देश्यों के प्रति सजग करते हैं। वहीं हमारे मनमस्तिष्क की कमजोरी की जड़ को पकड़ कर दुर्बलता रूपी भय से मुक्त कर संकल्प में स्थिरता लाकर, जीवन रूपी संघर्ष की वास्तविकता से लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे युद्ध भूमि में श्रीकृष्ण अर्जून को कायरता का परित्याग कर निर्भय होकर युद्ध में लड़ने की सलाह देते हैं। यहाँ पर यह सम्पूर्ण संकेत मानव जाति की तरफ है कि हृदय की अधम दुर्बलता को त्याग कर तुम उठ खड़े हों। कृष्ण का यह आदेश हमें अपने उद्देश्यों के प्रति फिर से सजग रहने की अद्भुत शक्ति प्रदान करता हैं। जब मनुष्य श्रेष्ठ गुणों के कारण अपमान सहकर या तो दुष्टता से दूर भाग जाता हैं या फिर समझौता करने को तैयार हो जाता है तब गीता उपदेश रूपी शस्त्रों द्वारा सेनापति के समान नेतृत्व करते हुए संकट की घड़ी में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर जीवन के दोराहों पर खड़े मनुष्य के लिए पथप्रदर्शक का कार्य करती हैं।
उत्साह, प्रयास की जननी है, और इसके बिना आज तक कोई महान उपलब्धि हासिल नहीं की गई है।
‘‘योगः कर्मसु कौश्लं।’’
यदि आप विद्यार्थी है तो अच्छी पढ़ाई करके अच्छे जीवन का आदर्श सामने रखें। यदि व्यापारी है तो व्यापार को पैसे कमाने का आधार न बनाकर स्वच्छ व उन्नत समाज का आधार बनाए। इसी से श्रेष्ठ सामाजिक मूल्यों का विकास होता हैं। जीवन का हर संघर्ष हर चुनौती महाभारत हैं। हम अपने जीवन में कत्र्तव्य को याद रखते हुए नियम एवं न्यायसंगत कार्य करें, एवं कमजोर एवं भय से परिपूर्ण दुविधापूर्ण जिन्दगी से बचे यहीं गीता का उपदेश हैं।
निर्भय होकर जीवन जीने की दृढ़ता यह मन की दृढ़ता है जो हमें कभी गिरने नहीं देती हैं।
‘‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’’
यहीं उक्ति गीता में भी प्रकट होती हैं। यह हमें निर्भय होकर जीवन जीने की दृढ़ता प्रदान करती हैं। यह हमें निर्देशित करती है कि हमारे जीवन का हर कदम, अग्रेषित जीवन का आधार बनेगा। दूसरा कदम जीवन के लिए स्थिरता प्रदान करेगा। किसी कारण वश हमें पीछे भी हटना पड़ेगा तो पूर्व में दृढता के साथ रखे कदम से, हमें पुनः स्थापित होने में कठिनाई नहीं आएगी। यहाँ मन की दृढ़ता है जो हमें कभी गिरने नहीं देती।
यह मन ही मित्र है और शत्रु भी। क्योंकि जो अपने मन को वश में नहीं कर पा रहा है वह सतत अपने शत्रु के साथ निवास कर रहा है जिससे उसका जीवन व लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते है। क्योंकि अर्जून नामक रोग आज हमारे जीवन के हर हिस्से में समान रूप से पाया जाता है। अतः हमें चाहिए की हम मन को संयमित करते हुए स्वयं का परिक्षण करना सीखे, इसे अपनी आदत बना ले एवं बुरी आदतों को जड़ से निकाल फेके। इसी से मन में दृढ़ता आएगी जो हमें कभी गिरने नहीं देगी। क्योंकि जिसका मन नियन्त्रित है उसकी बुद्धि स्वतः नियन्त्रित दृढ़ हो जाएगी। जिससे योजनानुसार वह किसी भी उद्देेश्य के लिए कार्य कर सकेगा।
मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है, यदि वह व्यक्ति एक विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करें जैसा वह विश्वास करता है, वैसा वह बन जाता है।
“जब दिमाग कमजोर होता है तो परिस्थितियां समस्या बन जाती हैं
जब दिमाग स्थिर होता है तो परिस्थितियां आसान बन जाती हैं
जब दिमाग कमजोर होता है तो परिस्थितियां अवसर बन जाती हैं”
कुछ व्यक्ति यह सोचते है कि हम यह कार्य क्यों करेे, हमें तो फल मिला ही नहीं? अथवा हम बिना मेहनत के सब पा सकते है तो कर्म क्यों करें ? परन्तु गीता का दृष्टिकोण इन दोनों से भिन्न होकर एक सीमा तक मानव की स्वतन्त्रता की पुष्टि करता हैं। आत्म संकल्प से युक्त, भाग्यवादिता से रहित, गीता का कर्म मानव के हृदय को इस आशा से भर देता है कि अपने जीवन को बनाना, बिगाडना केवल व्यक्ति के स्वयं के हाथों में हो जाता हैं।
चूंकि गीता की रचना उस रणक्षेत्र में हुई थी, जहाँ दोनों सेनाऐं आक्रमण के लिए तत्पर थी। उस परिस्थिति में अर्जून विचलित एवं शंकालु थे। तर्क वितर्क दोराहें की स्थितियों में श्रीकृष्ण सारथी बने थे। शरीर रथ है, चलता है वैसे ही जीवन है चलता है। यहीं कर्म का पहला संदेश है कर्म करते रहना चाहिए। दूसरा संदेश कर्तव्यपालन में कोई संशय नहीं होना चाहिए। यहां पर कर्म के कर्त्ता हम है यह अहं की भावना कर्म को स्वार्थी बनाती हैं।
कर्म एक प्रकार की औषधि है। जो कृष्ण ने अर्जून के माध्यम से सम्पूर्ण मानवता को प्रदान की है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥(2/47)
गीता यह नही कहती हे कि हम अपने सांसारिक दायित्वो का परित्याग कर संन्सासी के रूप में उच्च पर्वत शिखर पर जाकर तपस्या करें अपितु गीता कर्म के माध्यम से असफलता एवं समस्या का आभास होने पर निरन्तर यत्न में लगे रहने की प्रेरणा देती हैं। गीता में फल के त्याग का अर्थ है फल के पीछे भटकते न फिरना। यह उद्देश्य हिन क्रिया नहीं हैं। किसी कर्म के परिणामों की जानकारी न होना त्याग नहीं हैं। यद्यपि स्वाभिमान, पौरूष व सम्पदा का क्षय करके किया गया मानसिक कर्म परित्याग के योग्य हैं।
साररूप में हम कह सकते है कि रणभूमि में एक युद्ध अर्जून लड़ने जा रहा था। एक युद्ध जीवन के संघर्ष का हम लड़ रहे हैं। यहीं हमारे जीवन का कुरुक्षेत्र हैं। हम आज के अर्जून हैं। मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है,स्वयं ही अपना शत्रु है,मनुष्य स्वयं के सुदृढ विचारों के साथ स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है और कोई दूसरा नहीं। इस प्रकार गीता का यह सम्पूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण जहाँ एक और नूतन सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है, वहीं मानव की उच्चतम आकांक्षाएँ एवं नवीन आशाएँ के लिए सूदृढ़ नींव का प्रबल प्रेरक स्तम्भ भी हैं।
“कुछ आरम्भ करने के लिए आप का महान होना कोई आवश्यक नही.. लेकिन महान होने के लिए आप का कुछ आरम्भ करना अत्यंत आवश्यक है।”