सोन चिरइया,मोरी चिरइया, मोरे अंगना पर आती चिरइया,
खेलत चिरइया ,बोलत चिरइया,
मोरी महकी बगिया में उडत, फिरत हंसती, गाती,देखों न चिरइया...
मोरे अंगना में रहवत चिरइया, पैइसा की बोली पर ना तोलो चिरइया.!!
विवाह जीवन के महत्त्वपूर्ण संस्कारों में से एक संस्कार हैं। भारत में अधिकांशतया शादियों का आयोजन एक उत्सव के रूप में मोज मस्ती, धूम धडाका, सर्वाधिक मनोरंजन के रूप में लिया जाता हैं। कई बार तो घर में आय का स़्त्रोत, शुन्य होने पर भी बडे पैमाने पर अलग अलग रूप में शादी के नाम पर सिर्फ दिखावे हेतु बहुतायत फिजूल खर्ची कि जाती हैं। यहाँ पर निम्न आय के वर्ग के समुह विशेष सीमित दायरे में खर्च का ध्यान रखते हैं। वहीं मध्यम और उच्च वर्ग के लोग अन्य की तुलना में अपना उच्च स्तर दिखाने के लिए बहुत ज्यादा फिजुल खर्ची दिखाते हैं। जिसमें एक किस्म का लोगो का दबाव एवं कुछ दिखावा भी शामिल होता है। हमारी ही विकृत मानसिक ग्रन्थियां जो यह निर्धारित करतीं हैं कि समाज, समाज के लोग क्या कहेंगे, हम कुछ विशेष रूप से ऐसा नहीं करेंगे तो समाज व समाज के लोग हंसेंगे, अथवा हम कुछ ऐसा विशेष अच्छा करेंगे, तो समाज में हमारा ही अच्छा लगेगा। या फिर हम खुद भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं कि, आह! आज मेरा मन खुश हो गया है, देखों!
हमारी इस खुद की फिजूल खर्ची के कारण हमारे ही उपर एक झुठी शान और समाज में ही हमारी प्रतिष्ठा बढ गयी है। क्योंकि हमने आज दिखावे के नाम पर कुछ ज्यादा ही बेहतरीन ढंग से अच्छा व्यय किया है। इन मानसिक ग्रन्थियां का बीजारोपण हमारे ही द्वारा किया जाता है, और यह वट वृक्ष भी पल्लवित होकर हमारे ही द्वारा कालान्तर में विशालकाय वन के रूप में परिणीत हो जाता हैं। हम नहीं चाहते हैं कि हमारे द्वारा कि गई फिजुल खर्ची कम कि जाएं, हम चाहते हैं कि जेब में पैसा हो या न हो फिर भी हम झुठे दिखावें के लिए जमकर तारीफ़ बटोरने के लिए खर्चा करने में कौताही नहीं बरते हैं, चाहें इसमें हमारी मिथ्या प्रशंसा ही क्यो न छुपी हो।
कभी कभी हम झुठी प्राण प्रतिष्ठा शान शौकत, और फिजुल खर्ची और दिखावे के नाम पर, हम प्रतिष्ठा में प्राण गंवाना उचित समझते हैं,हमारे ही मन में कुछ ग़लत मापदंडों के कारण हम यह निर्धारित करने लग जाते हैं की यह हमारे औचित्य से समुचित हैं। इसके बाद भी हमारे मन में यह प्रश्न वाचक चिन्ह लगा रहता है कि मेरी जेब में रखीं रकम इस खर्च के लिए उपयुक्त नहीं है। शादी में कि जानेवाली बेतहाशा फिजूलखर्ची उस दिमक की तरह है, जिसे हम बुराई मानने को तैयार ही नहीं हैं,चाहे हमें कर्ज तक ही क्यों न लेना पड़े, मगर हम अपनी झूठी शान को बनाये रखने के लिए शादी में खूब खर्च करते हैं, अक्सर यह खर्च दूल्हे वालों की तरफ से मांग के तौर पर भी होते हैं, यह खर्च उस सामाजिक बुराई दहेज से अलग ही होती है, जिसके नाम पर न जाने कितनी जिंदगियां बरबाद हो जाती हैं। यहां हम जो बात कर रहे हैं, उसमें दहेज के खर्चे नहीं, बल्कि अपनी शान दिखाने वाले वे खर्चे हैं, जिनसे अगर बचा जाये, तो उम्र हो जाने के बाद भी शादी-ब्याह में होने वाली देरी को दूर किया जा सकता है।
झुठी शान का प्रदर्शन करने के नाम पर,अगर इन तमाम हालात को देखें, तो हम समझ सकते हैं कि एक जोड़े की नयी जिंदगी शुरू करने के लिए इन सब खर्चों की जरूरत नहीं होती है, हम इन फिजुल खर्ची को कम करके, नवविवाहित जोड़े का इसी पैसों से सही इस्तेमाल करके सुदृढ़ भविष्य की नींव भी रखी सकते हैं। परन्तु यह सब हमारी बौद्धिक समझ पर निर्भर करता है।
यद्यपि शादी-ब्याह में खर्चों में कमी की बात हमेशा की जाती रही है, मगर समाज में यह बुराई इतने अंदर तक दाखिल हो चुकी है कि इसको रोक पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा दिखाई देने लगा है। हम दूसरों को खुश करने के चक्कर में अपनी खुशी को समाज के कुछ ग़लत मापदंडों पर खुला दांव पर लगा देते हैं।
यद्यपि भारत में शादियां बड़ी ख़ुशी का अवसर होती हैं। यह समारोह भी कभी-कभी कई दिनों तक चलता है और इसकी तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती हैं, इन समारोहों में लाखों और करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं, हज़ारों लोगों के खाने का इंतज़ाम किया जाता है। फिर भी हम ही मुक दर्शक बन कर समाज की कुरुतियों के कोढ़ का अनुसरण करने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। चाहें हम वैदिक विचारधारा और सुझावों व नियमों से सहमत हैं, फिर भी हम अभिमन्यु की तरह इस तरह से चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं कि पंगु होते समाज को कुछ भी समाधान नहीं सुझा पाते हैं। जन्म, मरण, परण, हमारे समाज के तीन बहुत बड़े खर्चे होते हैं, हमारे मन की स्वाभाविक इच्छा होती है, कि हम इन समारोहों में मन खोलकर खर्चा करें। अधिकतर समय में तो हमारी यह इच्छा इतनी बेकाबू हो जाती है, कि शेखी के जमाने का अनुसरण करते हुए हम अपनी तुलना बहुत पैसे वाले से करते हुए हम चादर के बाहर पैर पसारने लग जाते हैं।
हैरत की बात तो यह है कि जब आप अपनी बेटी की शादी करने वाले होते हैं, तब तो आपको ये खर्च बहुत चुभते हैं, मगर जब आप अपने लड़के की शादी करने निकलते हैं, तब आप की मांग यह होती है कि आपकी इज्जत का ख्याल रखते हुए बारातियों का शानदार स्वागत हो और उस समय आप भी बारातियों की संख्या पर भी काबू नहीं रखना चाहते हैं। इस खर्च का दबाव इतना अधिक हो जाता है कि अब तो लड़की वाले मजबूर होकर लड़के के शहर ही चले जाते हैं, जहां कोई मैरिज हाल आदि किराये पर लेकर वहीं से शादी कर देते हैं। ऐसा करते हुए भी लड़की वालों पर यह दबाव रहता है कि किस रिश्तेदार को शामिल करें और किसको नही।
1. शादी में ही मजे नहीं करेंगे तो कब करेंगे? शादी के नाम पर ही तो हम भी अपने बच्चें का लाड़, प्यार, करेंगे, मोज मस्ती नाचेंगे, कुदेगें, चाहें शादी का खर्चाअनावश्यक ही क्यो न हो, यह मौका भी तो कभी कभी ही आता है।
2. मिलने वालों को शादी में नहीं बुलायेंगे तो, कब बुलायेंगे? हमने भी तो उनकी शादी में मज़े किए हैं।
3. लोग क्या कहेंगे साहब? लोग कौन? ये लोग तब क्या कहेंगे, जब आप शादी में किये खर्च के कारण कर्ज में डूब जायेंगे?
4. शादी तो बस ऐसी हो कि न कभी किसी की हुई और न होगी। लोग हमेशा उसे याद रखें। नाच, गाना, खाना बढ़िया हो, सजावट अच्छी हो, दुल्हन-दूल्हा सुंदर और स्मार्ट हों। दुल्हन और दूल्हे के जेवर, कपड़े, बड़े ब्रांड और मशहूर डिजाइनर्स ने बनाए हों।
5. वेन्यू शहर का सबसे बड़ा फाइव स्टार या किसी मशहूर आदमी का फार्म हाउस या किसी एम.पी. की कोठी हो तो सोने में सुहागा।
6. शादी में परोसे जाने वाले व्यंजन भी एक से बढ़कर एक होंगे। हो सकता है कि भारत भर से मशहूर खाने-पीने की चीजों को परोसा जाए। ऐसी शादी में सभी जाने-माने नेता, अभिनेता, उद्योगपति न हों, ऐसा कैसे हो सकता है।
जब हमारे समाज का या जाति का एक धनी व्यक्ति पाँच हजार व्यक्तियों को शादी में बुला रहा है, तो गये-गुजरे व्यक्ति को दो सौ-पाँच सौ तो बुलाने ही पड़ेंगे। बिल्ली के लिए तो मजाक था, पर चूहे की तो जान निकल आयी। पिछले 20-30 वर्षों में जैसे-जैसे कुछ लोग धन हथियाने में कामयाब हुए हैं, शादी जैसे पवित्र एवं पारिवारिक समारोह का उन्होंने सत्यानाश कर दिया है।
यद्यपि शादी हिन्दू समाज की तहजीब का हिस्सा है, फिर भी कानून के माध्यम से इसके खर्चो पर लगाम लगाना बहुत अनीवार्य हैं।
ख़ुशी के मौक़ों पर पैसे खर्च करना लोगों का अधिकार है तो इसे क़ानून बनाकर भी रोक जा सकता है।
भारतीय शादी उद्योग में वर्तमान में रु। 1,00,000 करोड़ है और प्रत्येक वर्ष 25-30% की तीव्र दर से बढ़ रहा है। एक औसत भारतीय शादी में 20 लाख से 5 करोड़ तक खर्च हो सकते हैं। भारत में एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में जमा कुल संपत्ति का पांचवां हिस्सा अपनी शादी पर खर्च करने का अनुमान है।
बैंगलोर राज्य की रिपोर्ट के अनुसार भारत में शादियों में बेतहाशा खर्च के नाम पर 306 करोड रूपये भोजन में, व 25 प्रतिशत आय का हिस्सा भोजन की बर्बादी में नष्ट हो जाता हैं। जिसमे व्यक्ति स्वयं की इच्छा से कम सामाजिक दबाव की वजह से ज़्यादा अपने जीवन की पूँजी का 20 प्रतिशत हिस्सा एक विवाह समारोह में खर्च कर देता है।
वर्ष 2011 में पी.जे. कुरियन तथा महेन्द्र चौहान ने लोकसभा में नीजी विधेयक प्रस्तुत किया हैं। 2017 के प्रारम्भ में लोकसभा के सांसद रंजीत रंजन के द्वारा ‘‘मेरिज कम्पलसरी रजिस्ट्रेशन एण्ड प्रिवेशन आफ वेस्टफुल एक्सपेंडिचर बिल 2016 प्रस्तुत किया। यह सभी नीजी विधेयक शादी में होने वाले खर्चो की अधिकतम सीमा तय करने एवं सादगी की बात पर बल देते हैं।
इस बिल के सम्बन्ध में स्वयं रंजीत रंजन कहतीं हैं कि इस बिल के पीछे खुद उनका निजी अनुभव छिपा है. "हम 6 बहनें हैं, हम ने अपने माता -पिता के चेहरों पर परेशानी देखी है", वह कहती हैं कि बिहार और पंजाब जैसे राज्यों में लड़की वालों को शादियों में ज़बरदस्ती पैसे अधिक खर्च कराये जाते हैं, लड़के वाले गेस्ट लिस्ट देते हुए कहते हैं कि लिस्ट में शामिल सभी लोगों के खाने का इंतज़ाम होना चाहिए। ख़ुशी के मौक़ों पर पैसे खर्च करना लोगों का अधिकार है, तो इसे क़ानून बनाकर कैसे रोक जा सकता है, इस पर रंजित रंजन कहती हैं कि "लड़की वालों से पूछो कि ये ख़ुशी का मौक़ा है या नहीं" उनके विचार में लड़की वालों को पैसे खर्च करने पर मजबूर किया जाता है। उनके अनुसार, अगर कोई परिवार शादी के दौरान पांच लाख रुपये से अधिक राशि खर्च करता है, तब उसे गरीब परिवार की लड़कियों के विवाह में इसका कुछ प्रतिशत देना चाहिए।
रंजीत रंजन ने कहा है कि विवाह दो लोगों का पवित्र बंधन होता है और ऐसे में सादगी को महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन, दुर्भाग्य से इन दिनों शादी-ब्याह में दिखावा और फिजूलखर्ची बहुत बढ़ गयी है। फिलहाल जम्मुकश्मीर के द्वारा लागु किया गया कानून जिसमें शादी में मेहमान नवाजी, पकवान, डि.जे., आतिशबाज़ी, ड्राय फ्रूट्स, अत्यधिक मात्रा में मिठाई के लेन देन, मंगनी, रिसोर्ट, शादी के कार्डो पर की गई, दिखावे के नाम पर फिजूलखर्ची पर खड़ा कानून व्यापक स्तर पर लागू किए जाने का प्रयास है। अतिथियों के सत्कार के और अत्यधिक संख्या के नाम पर जुर्माना भरने का भी प्रावधान किया गया है। जम्मुकश्मीर के नियमों को ईमानदारी से लागु किया जाए तो बहुत हद तक फिजुलखर्ची पर रोक लगा सकते हैं। जम्मुकश्मीर की सरकार द्वारा, शादियों में धन की बर्बादी रोकने के लिए शादी में की जाने वाली फिजूलखर्ची को कानूनी दायरे में रखा गया है, जिसमें विशेष रूप से तेज लाउड स्पीकर, तेज पटाखों पर रोक लगाते हुए,1 करोड की शादी में 10 लाख डोनेट किए जाने का प्रावधान कडाई हैं। इसी बीच खाने की बर्बादी रोकने के लिए शेष बचा खाना जरूरतमंदो में बांटने का प्रावधान हैं।
विवाह संपत्ति के प्रदर्शन व बाजारवाद का उत्सव बन गया है।
अगर इन तमाम हालात को देखें, तो हम समझ सकते हैं कि एक जोड़े की नयी जिंदगी शुरू करने के लिए इन सब खर्चों की जरूरत नहीं होती है, शादी में फिजूलखर्ची भी उतनी ही पुरानी प्रथा है जो भौतिकवाद बढ़ने और बाजारवाद के आगमन से साथ न सिर्फ सर्वव्यापी बल्कि फूहड़ भी हो गई है।विवाह सिर्फ संपत्ति के प्रदर्शन का कार्यक्रम ही नहीं बन गया है बल्कि सत्ता के प्रदर्शन के साथ बाजारवाद का उत्सव भी हो गया है।