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महिला सशक्तिकरण सच और भ्रम | क्या सिखाती है रईसा अंसारी की कहानी?

महिला सशक्तिकरण सच और भ्रम | क्या सिखाती है रईसा अंसारी की कहानी?

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सशक्त महिला और सशक्त समाज दोनों ही देश के विकास में एक दूसरे के पूरक हैं। चूंकि महिलाएं हमारें देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं। बदलते समय के साथ आधुनिक युग की नारी शिक्षित होकर स्वतन्त्र हैं, वह अपने अधिकारों के प्रति सजग रहकर स्वयं निर्णय लेती हुई, घर की चार दिवारीं से निकलकर, देश के लिए महत्तवपूर्ण कार्य करती हैं।

यद्यपि वर्तमान आधुनिक समय में महिला अधिकारों और लैगिंक समानता का अवसर पाने में महिला सशक्तिकरण की अहम् भूमिका हैं, क्योंकी स्त्री सशक्तिकरण और अधिकार महिलाओं को सिर्फ गुजारे भत्तें के लिए ही तैयार नहीं करतीं हैं,बल्कि उन्हें अपने अदंर नारी चेतना को जाग्रत करने और सामाजिक अत्याचारों से मुक्ति पाने का माहौल भी तैयार करतीं हैं, यह वह शक्ति प्रवाह है,जिसमें महिलाओं को वास्तविक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए सक्षम बनाना है।

भारत सरकार ने 2001 को स्वशक्ति वर्ष घोषित करते हुए ,महिलाओं के लिए सशक्तिकरण की नीति पारित करीं है। जिसमें देश में न तो महिलाओं को सशक्त बनाने वाली सरकारी योजनाओं की कमीं हैं, और ना ही स्त्री विमर्श करने वालों की। फिर भी लगता हे कि जो कुछ हो रहा है,वह हमारे व्यवहारिक जीवन और हमारे आसपास के परिवेश में स्वतः नजर आता हैं।

अगर एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग में सामाजिक, पारिवारिक, और वैचारिक बदलाव आएं तो शायद महिलाओं की समस्याएं कुछ हद तक कम हो सकतीं हैं। कभी कभी लगता है कि हमारे आस पास बहुत कुछ बदलाव आ रहा हैं, पर यह बदलाव सतही ज्यादा है। तथाकथित परम्परागत आधुनिक समाज में नारी दोहरे भार तले दबी हैं। गृहस्थी का भार, और व्यवसायिक कार्यो के मध्य सामंजस्य व समझौता परक परिस्थितियों में नारी को स्वयं की एवं अपने सपनों की बली देनी पडती हैं।

भले ही आज के समाज में कई भारतीय महिलाएं राष्टपति, प्रधानमंत्री, प्रशासनिक अधिकारी, डाक्टर, वकील आदि बन चुकी हैं। लेकिन आज भी काफी महिलाओं को पूर्ण सहयोग और सहायता की आवश्यकता हैं। भारत की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, प्रगति, महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, प्रगति पर ही निर्भर करती है। फिर भी महिलाओं को शिक्षा के क्षेत्र में स्वतन्त्रता पूर्वक सुरक्षित कार्य करने, और सामाजिक आजादी में पूर्ण सहयोग प्रदान करने की अभी भी आवश्यकता हैं।

महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकारों की पुरी सूची संविधान द्वारा निर्धारित होने के बाद भी, आज भी सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक रूप से त्रस्त महिला अपने आत्मबल से विकासोन्मुखी होने का प्रयास करतीं आ रहीं हैं, फिर भी कुछ हमारी, कुछ समाज की, कुछ विशेष बुद्धिजीवी वर्ग की गलत कुटनीतियां, कुछ गलतफहमियां, कुछ वैचारिक संकिर्ण मनोवृत्तियां, हमारे परिवेश में अनेक समस्याओं से जुझती नारी को पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं रखती है। जिस वजह से महिलाएं शिक्षित होने पर भी विकास की गती में कदमताल नहीं बैठा पाती है। जिसके कारक ग्रह न केवल समाज हैं बल्कि समाज का एक बुद्धिजीवी सुशिक्षितवर्ग भी पूर्णतया उत्तरदायी हैं।

महिला सशक्तिकरण व अधिकारों की विस्तृत सूची का दावा करने वाले ऊंचे तबके के बुद्धिजीवी वर्ग ही नारी शिक्षा को कदम दर कदम पीछे धकेलने में अग्रणी रहते हैं।जहां नारी की पूजा होती है, उस जगह पर देवता का निवास होता हैं। परन्तु विडम्बना यह देखीएं कि नारी में इतनी शक्ति होने के बावजुद भी उसके सशक्तिकरण की आवश्यकता क्यों महसूस होती हैं?

जो हम सब के लिए एक प्रश्नवाचक चिन्ह हैं।

इसका ज्वलन्त उदाहरण रईसा अंसारी हैं। भौतिकशास्त्र में पी. एच. डी. डिग्री हासिल करने वाली डॅा. रईसा अंसारी। डॅा. रईसा पूर्ण शिक्षित होने पर भी सुशिक्षित विशेष बुद्धिजीवी वर्गो के द्वारा शिक्षा प्राप्त होने पर भी विकास के पथ से पीछे धकेल दी गई हैं। भौतिकशास्त्र में वैज्ञानिक शोध कर चुकी यह महिला मटेरियल साइंस में पी. एच. डी. करने के पश्चात, बेल्जियम में उच्च शोध कार्य करने का अवसर उच्च शैक्षणिक पद पर कार्यरत शिक्षको की गलत नीतियों और गलतफहमियों के कारण गवां चुकी हैं।

वहीं महिला जो अब परिस्थितियों का शिकार हो कर 50 रु. पर किलो में आम का ठेला लगाने को मजबुर हैं, वहां पर भी वह नगर निगम के कर्मचारियों के द्वारा प्रताडित की जा रहीं हैं। जहां उसकी शिक्षा एक मजाक बन कर रह गयीं हैं।

2011 में इंदौर के ही देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में स्कूल आफ इंस्टूमेंटेशन से पी. एच. डी., इसी विश्वविद्यालय से स्कूल आफ फिजिक्स से रईसा ने एम. एस. सी. की डिग्री भी प्रथम श्रैणी से प्राप्त की। उस समय की संघर्षमय परिस्थितियों से भी रईसा के कदम नहीं डगमगाएं।

रईसा का संघर्ष शुरू हुआ, पी. एच. डी. के दरमयान। इस संघर्ष का मुख्य कारण था, विशेष सुशिक्षित समाज में उच्च बुद्धिजीवी वर्ग का दिखावा करने वाले उच्च शिक्षा के नामदार व्यक्ति।

अगर यह विशेष समुह वर्ग चाहता तो, रईसा का अगला कदम सुखमय हो सकता था।

किन्तु उच्च नामदार व्यक्तियों की गलत स्वार्थ नीतियां, कुछ गलतफहमियां, कुछ प्रदुषित अवैचारिक दृष्टिकोण, और कुछ ईष्यावश पथ की अज्ञेयता ने रईसा का जीवन संघर्षमय बना दिया हैं।

यद्यपि यह एक सच्चाई हे कि विश्वविद्यालय के इस विभाग से भौतिकशास्त्र में पी. एच. डी. करने वाले हर छात्र को केरियर के बेहतर अवसर मिलते हैं। परन्तु एक कुटिल सच्चाई यह भी है कि विश्वविद्यालय का यह वर्ग अपनी कुटिल नीतियों के कारण रोज़गार के अवसरों को अग्रेसित हीं नहीं होने देता हैं।यद्यपि रईसा सी. एस. आइ. आर. की फ़ेलोशिप पर आइ. आइ. एस. ई. आर. कोलकाता में शोध कार्य कर रहीं थी। उसी समय में बेल्जियम में चल रहे शोध में कार्यरत विश्वविद्यालय के पूर्व सीनियर एवं वहीं के शोध प्रधान कर्ता ने रईसा को शोध कार्य करने में स्वीकृति प्रदान करीं थी। परन्तु गलत कुटनीति की वजह से पी. एच. डी. गाइड ने सहमति पत्र पर दस्तखत करने से मना कर दिया। और यहीं से रईसा अंसारी के संघर्ष का पहला कदम शुरू हुआ।

एक तरफ रईसा के शोध कार्य हेतु प्राप्त बेल्जियम जाने की अनुमति अस्वीकृत हो गई। वहीं आइ. आइ. एस. ई. आर. कोलकाता में शोध कार्य को बीच में छोडकर रईसा को वापस आना पडा। वहीं दूसरी तरफ पी. एच. डी. अवार्ड में भी गाइड का गलत रवैया और अनावश्यक मनमानी, व गलतफहमीया जिससे रईसा की 2004 में रजिस्टर्ड पी. एच. डी. 2011 में अवार्ड हुई।

कमजोर आर्थिक स्थिति से त्रस्त रईसा के द्वारा गाइड से माफी मांगने पर भी, वैचारिक कलुषिता व गाइड की मनमानी ने रईसा की मजबुरी को अनदेखा कर दिया। यद्यपि तात्कालीन रजिस्ट्रार डॉ. आर. डी. मूसलगांवकर और रेक्टर प्रो. आशुतोष मिश्रा की मदद से रईसा को पी. एच. डी. अवार्ड तो हो गई, परन्तु पारिवारिक नैतिक मूल्यों का पतन तो रईसा के साथ आज भी जारी ही था।

पारिवारिक जीवीकोपार्जन की अनिवार्यता, गरीबी से निरन्तर संघर्ष, दयनीय आर्थिक स्थिति की आकस्मीक मार, रईसा अंसारी को आम का ठेले चलाने के लिए मजबुर करने लग गई। वह चाह कर भी महिला सशक्तिकरण व महिला अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकीं।

यदि हम वस्तुस्थिति का पूर्ण विवेचन करे तो महिला अधिकारों का निर्धारण, महिला सशक्तिकरण की अनिवार्यता, नारी को अपने जीवन के विभिन्न पक्षों में कुछ करने की स्वतन्त्रता, अथवा सकारात्मक सुविधा प्रदान करना हैं। जिसमें वह स्त्री स्वयं का सामाजिक, नैतिक, आर्थिक, मानसिक, शैक्षणिक विकास पूर्ण रूप से कर सकें।

यह विश्लेषण रईसा अंसारी के जीवन में एक प्रश्नवाचक चिन्ह प्रस्तुत करता है।

यह विवेचन हमें इस बात को सोचने के लिए मजबुर कर देता हे कि -

1. क्या वास्तव में महिला सशक्तिकरण हुआ है?

2. क्या वास्तव में महिला को प्रदान किए जाने वाले समस्त अधिकार महिलाओं को सुनिश्चित रूप से प्राप्त हुए हैं?

3. क्या रईसा अंसारी जैसी कितनी ही लडकियां स्वयं के शैक्षणिक एवं शोध कार्य में विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं व विश्वविद्यालयों के विभागों और शोधमार्गदर्शको द्वारा इसी तरह पछाडी जाएगी,और प्रशासन बिना विरोध किए प्रसन्नचित्त बेशरमायी से आंखे मूंद कर मात्र प्रत्यक्ष दृष्टा बना रहेगा?

4. क्या विशेष बुद्धिजीवी वर्गो के द्वारा आज भी महिलाओं को विकास के सोपानो से पीछे धकेला जा रहा हैं? और क्या आगे भी यहीं कर्म चलेगा? क्या हम इस पुनरावृत्ति के पुनः आरंभिक कर्ता बनेगें?

5. क्या ऐसी कितनी ही महिलाओं को पुनः आगे बढने का अवसर कभी भी नहीं प्रदान किया जायगा, जो विकास का अवसर यह महिलाएं अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में चाहती थी?

6.क्या शोधकार्य में केवल चापलूसी को ही अवसर प्रदान किया जायगा? क्या चापलूसी के आधार पर ही शोधकर्ताओं के शोधकार्य पर दस्तख़त की भूमिका रहेगी उस वक़्त गरीब परिवार के विद्यार्थी और गरीब शोधकर्ता कहां जाएंगे?

भारत में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सबसे पहले समाज में उनके अधिकारों और मूल्यों को मारने वाली उन सभी राक्षसी सोच को मारना जरूरी हैं। भारत में अभी भी पुरूष स्त्री असमानता हैं। जहां महिलाएं अपने परिवार के साथ ही बाहरी समाज के भी बुरे बर्ताव से पीडित है। नारी सशक्तिकरण का अर्थ तब समझ में आएगा, जब भारत में उन्हें अच्छी शिक्षा दी जाएगी। और उन्हें इस काबिल बनाया जाएगा कि वो हर क्षेत्र में इस शिक्षा का स्वतन्त्र हो कर फैसले कर सकें। तभी तो रईसा अंसारी की तरह ही अन्य लड़कियां भी परिस्थितिवश असफल नहीं होगी।


Dr.Nitu  Soni

I am a Ph.D. in Sanskrit and passionate about writing. I have more than 11 years of experience in literature research and writing. Motivational writing, speaking, finding new stories are my main interest. I am also good at teaching and at social outreach.

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